वाराणसी यानी बनारस में गंगा नदी को साफ करने में अब कछुए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. नदी में लोग अभी भी मानव शव से लेकर पशुओं के अवशेष भी बहा देते हैं. नदी में मौजूद मांसाहारी कछुए(Turtle) इन अवशेषों को खा जाते हैं, जिसकी वजह से गंगा को साफ रखने में कछुए बड़ा योगदान कर रहे हैं.साल 1987 से गंगा में लगातार मांसाहारी कछुओं को छोड़ा जा रहा है. गंगा में इन कछुओं की संख्या अब सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों में है. पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने के लिए कछुओं का योगदान काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है.
कछुए (Turtle) पहले से ही पर्यावरण के मित्र माने जाते रहे हैं. नदी में मौजूद कछुए मृत जानवरों के शवों और सड़े गले मांस को खाकर गंगा को स्वच्छ बनाते हैं. कछुओं के लिए बनारस का गंगा क्षेत्र काफी अनुकूल माना गया है. पिछले 20 वर्षों से गंगा नदी में लगातार कछुए छोड़े जा रहे हैं. सबसे पहले 2000 में 615 कछुए छोड़े गए, जिसके बाद इनकी संख्या बढ़ती गई. इन दिनों 2000 मांसाहारी कछुआ के अंडों की हेचरिंग का काम सारनाथ के वन्यजीव प्रभाग में हो रहा है. जल्द ही इनसे निकलने वाले बच्चों को गंगा नदी में छोड़ा जाएगा.
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विश्व में कछुओं की 230 प्रजातियां हैं, लेकिन भारत में केवल 33 प्रजातियां ही पाई जाती हैं. उत्तर प्रदेश में केवल 13 प्रजाति के कछुए मौजूद हैं, जिनमें 7 को मांसाहारी प्रजाति के तौर पर चिन्हित किया गया है. वाराणसी के सारनाथ स्थित वन्य जीव प्रभाग में इटावा और आगरा क्षेत्र से लाए गए कछुआ के अंडे के माध्यम से इनकी संख्या बढ़ाने पर काम हो रहा है. कछुआ पुनर्वास केंद्र के प्रभारी निशिकांत सोनकर ने बताया कि हर वर्ष आगरा और इटावा में यमुना चंबल नदियों के तट से 2,000 कछुए के अंडे को लाकर हेचरिंग में रखा गया है. बीते एक दशक के भीतर 4636 कछुओं को गंगा नदी में छोड़ा जा चुका है. वहीं कछुआ की तस्करी करना या इनका शिकार वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के प्रावधान के तहत अपराध इस श्रेणी में आता है.
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