
हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया, लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभावों ने कृषि और पर्यावरण को गहरा नुकसान पहुंचाया. इस क्रांति का सबसे बड़ा असर पंजाब में दिखा, जहां धान और गेहूं की खेती को बढ़ावा दिया गया. इस एकतरफा सोच ने किसानों को इन फसलों पर निर्भर कर दिया, जिससे कृषि विविधता समाप्त हो गई. परिणामस्वरूप, अधिक केमिकल खाद और कीटनाशकों के उपयोग से पर्यावरण और स्वास्थ्य को भारी नुकसान हुआ. पंजाब, जो कभी समृद्ध कृषि प्रणाली और विविध फसलों के लिए जाना जाता था, आज गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा है, खासकर कैंसर के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है.
पंजाब में पहले मक्का, बाजरा, ज्वार, दलहन, तिलहन और सब्जियों के साथ-साथ डेयरी का भी व्यापक रूप से उत्पादन होता था, जिससे किसान परिवारों को स्थिर आय और संतुलित भोजन मिलता था. यह बहुआयामी कृषि प्रणाली किसानों को आत्मनिर्भर बनाए रखती थी, जिससे वे बाजार पर कम निर्भर रहते थे. 1980 के दशक से पहले किसान केवल माचिस, नमक, और मसालों जैसी छोटी-मोटी वस्तुएं ही बाजार से खरीदते थे, क्योंकि बाकी सबकुछ उनकी खेती से ही प्राप्त होता था. उस समय की खेती न केवल भूमि की उर्वरता बनाए रखती थी, बल्कि किसान परिवार भी स्वस्थ रहते थे.
साल 1966 में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही पंजाब ने अन्न उत्पादन में बड़ी सफलता हासिल की, लेकिन इसके साथ ही परंपरागत कृषि विविधता का अंत हो गया. जहां पहले प्रति हेक्टेयर 1 किलो उर्वरक का प्रयोग होता था, वह 2023-24 में बढ़कर 247.61 किलो तक पहुंच गया. 2017 के आंकड़ों के अनुसार, पंजाब में प्रति हेक्टेयर 740 ग्राम कीटनाशकों का उपयोग हो रहा है, जो अन्य राज्यों से कहीं अधिक है. इस केमिकल खाद और कीटनाशकों के जरूर ज्यादा से उपयोग ने पंजाब की उपजाऊ भूमि को बंजर बना दिया है. मिट्टी की उर्वरता घट गई है, भूमि सख्त हो गई है, और जलस्तर तेजी से गिर रहा है. इन केमिकल अवशेषों ने खाद्य पदार्थों को विषाक्त बना दिया है, जिससे कैंसर और अन्य गंभीर बीमारियों का प्रकोप बढ़ गया है. धान और गेहूं की उच्च उपज वाली किस्मों को बढ़ावा देने के चलते केमिकल फर्टिलाइज़र और कीटनाशकों का उपयोग बढ़ा है. . अगर यह सिलसिला जारी रहा तो किसानों का कहना है कि पंजाब खेती के मामले में अपनी पहचान खो देगा.
लुधियाना जिले के शेरपुर कला गांव के किसान रसबिंदर सिंह ने 'किसान तक' को बताया कि हरित क्रांति के बाद धान और गेहूं पर आधारित एकतरफा कृषि प्रणाली ने पंजाब की खेती की विविधता को गंभीर रूप से प्रभावित किया. उनका कहना है कि इन फसलों से आय का एक आसान मार्ग तो मिला, लेकिन इससे मक्का, बाजरा, ज्वार, दलहन, तिलहन और सब्जियों जैसी फसलें धीरे-धीरे समाप्त हो गईं. पहले किसान जो सब्जियां और दालें खुद उगाते थे, अब उन्हें बाजार से खरीदने के लिए मजबूर हो गए हैं. इससे किसान उत्पादक से उपभोक्ता बन गए हैं और अब वे अधिक खर्च कर रहे हैं. रसबिंदर सिंह का कहना है कि किसानों को यह महसूस नहीं हो रहा कि धान-गेहूं की फसलों ने उन्हें बाजार पर निर्भर बना दिया है. हरित क्रांति से पहले किसान अपनी अधिकांश जरूरतों के लिए आत्मनिर्भर थे और स्वस्थ एवं पोषक भोजन खुद उगाते थे. अब केमिकल खेती ने किसानों और उनकी जमीन को बीमार कर दिया है, जिससे पंजाब में लोगों में शारीरिक और मानसिक बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है. डॉक्टरों की संख्या में भी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है, और किसानों का पैसा बीमारियों के इलाज में अधिक खर्च हो रहा है.
पंजाब के गुरदासपुर से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता राजीव कोहली 'किसान तक' से कहा कि कि हरित क्रांति के बाद धान और गेहूं की फसलों के लिए बेहतर बीज, मशीनरी, और विपणन प्रणाली का विकास हुआ, जिससे किसानों को तत्काल अधिक आय मिलने लगी. एमएसपी के जरिए गेहूं और धान के निश्चित मूल्य मिलने लगे और इन फसलों के लिए बड़े पैमाने पर गोदाम बनाए गए. इसके चलते किसान धीरे-धीरे धान-गेहूं के फसल चक्र पर निर्भर हो गए और राज्य की 40-50 अन्य फसलों खेती की किसानों ने छोड़ दिया. सरकारों ने भी धान और गेहूं फसलों पर ध्यान केंद्रित किया और इसके साथ ही केमिकल उर्वरकों और कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग शुरू हो गया. हालांकि, शुरुआती दौर में इन फसलों से आमदनी बढ़ी और उगाना आसान था, लेकिन दीर्घकालिक प्रभावों पर ध्यान नहीं दिया गया.
कोहली कहते हैं कि धान-गेहूं फसल चक्र अब धीरे-धीरे दम तोड़ रहा है, क्योंकि सरकारों ने सिर्फ इन फसलों के उत्पादन के लिए पूरी प्रणाली विकसित की, जिससे अन्य पौष्टिक फसलें हमारी थाली से गायब हो गईं. पीडीएस के माध्यम से गरीबों को केवल धान और गेहूं ही वितरित किए जाने लगे, जिससे पंजाब का एकल फसल प्रणाली बहु-फसली प्रणाली को नष्ट कर रही है. इसके अलावा, अधिक केमिकल उर्वरक और कीटनाशकों के उपयोग की जरूरत बढ़ती जा रही है , जिससे किसानों की लागत हर साल 15 से 20 प्रतिशत तक बढ़ रही है, जबकि फसलों के मूल्य केवल 6 प्रतिशत ही बढ़ रहे हैं. परिणामस्वरूप, देश अब दलहन और तिलहन जैसे उत्पादों के लिए अन्य देशों पर निर्भर हो गया है. इस कृषि प्रणाली ने पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव डाला है. केमिकल्स के अत्यधिक उपयोग से मिट्टी की उर्वरक क्षमता घट गई है, भूमि जलस्तर तेजी से गिरने लगा है. नमी की कमी और मिट्टी में ह्यूमस की समाप्ति ने खेती की स्थिरता को भी गहरा नुकसान पहुंचाया है.
खेती विरासत मिशन की निदेशक रूपसी के अनुसार पंजाब में दशकों से चल रही केमिकल खेती ने खाद्य श्रृंखला में विषाक्तता बढ़ा दी है, जिसका सबसे अधिक प्रभाव महिलाओं पर पड़ा है. मशीनीकरण के कारण महिलाओं की कृषि में भूमिका घट गई है, दूसरी ओर केमिकल से उत्पादित उपज खाने से कैंसर, एनीमिया, और प्रजनन संबंधी समस्याओं से ज्यादा प्रभावित हो रही हैं. इसलिए रूपसी ने महिलाओं को संगठित कर जैविक किचन गार्डन उगाने के लिए प्रेरित कर रही हैं, जिससे वे सुरक्षित और रसायन-मुक्त भोजन का उत्पादन कर सकें. वूमेन्स एक्शन फॉर इकोलॉजी अभियान के तहत महिलाएं अपने रसोई के लिए घर के आस पास के बागीचों में जैविक सब्जियां उगा रही हैं. इस तरह अपने बच्चों और परिवारों को सुरक्षित और पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा रही हैं. रूपसी का कहना है इस अभियान का लक्ष्य पारंपरिक कृषि में बदलाव लाकर जैविक खेती और किचन गार्डन के माध्यम से कृषि की विविधता को पुनर्जीवित करना है इससे न केवल परिवार को रासायन-मुक्त भोजन मिलेगा, बल्कि महिलाओं की आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ होगी.किचन गार्डन की यह पहल पंजाब की पारंपरिक कृषि प्रणाली की वापसी का एक अहम कदम है, जिससे पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित होगी और किसानों की आर्थिक स्थिति भी मजबूत होगी.
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