
केंद्र सरकार ने रबी मार्केटिंग सीजन 2025-26 के लिए गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 2,425 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है. फसलों का दाम तय करने वाले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) के मुताबिक पंजाब में गेहूं की लागत सिर्फ 869 रुपये प्रति क्विंटल आती है. यह देश में सबसे कम है. यानी पंजाब के किसानों को एमएसपी पर गेहूं बेचने में 1556 रुपये प्रति क्विंटल का फायदा मिल रहा है, दूसरी ओर महाराष्ट्र में एक क्विंटल गेहूं पैदा करने की लागत 2381 रुपये आती है. अब अगर यहां भी एमएसपी 2,425 रुपये प्रति क्विंटल के ही रेट पर मिलेगा तो सूबे के किसानों को एमएसपी की लीगल गारंटी मिलने के बाद भी प्रति क्विंटल महज 44 रुपये का ही फायदा होगा. इसलिए यहां के किसानों के लिए गेहूं की एमएसपी का कोई मतलब नहीं रह जाता.
दरअसल, फसलों की लागत हर राज्य में अलग-अलग आती है, लेकिन एमएसपी एक ही है. इसलिए इस एक राष्ट्र-एक एमएसपी वाले फार्मूले से कुछ सूबों के किसानों को बहुत फायदा तो कुछ को नाम मात्र का ही लाभ मिल रहा है. इसीलिए एमएसपी गारंटी का कानून बन जाने पर भी सभी राज्यों के किसानों को न्याय नहीं मिल पाएगा. इसी वजह से एमएसपी गारंटी की कानून की लड़ाई में पूरे देश के किसानों की भागीदारी नहीं दिखती. जिन राज्यों के किसानों को एमएसपी की वर्तमान व्यवस्था से बहुत कम फायदा हो रहा है वो एमएसपी गारंटी कानून की जंग में भला क्यों शामिल होंगे?
मुद्दा यह है कि जब हर सूबे में फसलों की लागत अलग-अलग आती है तो फिर राष्ट्रीय स्तर पर एमएसपी का रेट एक ही क्यों है? जब मिनमिम वेज अलग-अलग है तो एमएसपी एक क्यों, जब केंद्र द्वारा संचालित मनरेगा मजदूरी अलग-अलग है तो फिर एमएसपी एक क्यों, वो भी तब जब केंद्र सरकार खुद सभी राज्यों में फसल उत्पादन की लागत अलग-अलग आने की बात स्वीकार करती है. यहां तक कि डीजल और मशीनरी का दाम भी अलग-अलग है तो फिर एक एमएसपी पूरे देश के लिए कैसे व्यवहारिक हो सकती है.
हरियाणा में किसानों को प्रति क्विंटल गेहूं पैदा करने पर मात्र 1011 रुपये खर्च करने पड़ते हैं. इस तरह 2,425 रुपये प्रति क्विंटल की एमएसपी मिलने पर 1414 रुपये का फायदा होता है. देश के सबसे बड़े गेहूं उत्पादक उत्तर प्रदेश में प्रति क्विंटल की उत्पादन लागत 1277 रुपये है. इस तरह यहां एमएसपी पर गेहूं बेचने से किसानों को प्रति क्विंटल 1148 रुपये का फायदा मिल रहा है. हिमाचल प्रदेश में एक क्विंटल गेहूं उगाने में 1744 रुपये की लागत आती है. इस तरह यहां एमएसपी से सिर्फ 681 रुपये क्विंटल का फायदा हो रहा है.
इसी तरह बीते खरीफ मार्केटिंग सीजन 2024-25 में पूरे देश के लिए धान की एमएसपी 2300 रुपये प्रति क्विंटल थी. पंजाब के किसानों को धान की लागत 907 रुपये प्रति क्विंटल आ रही थी. यानी पंजाब के किसानों को प्रति क्विंटल 1393 रुपये का फायदा हुआ. हरियाणा में लागत प्रति क्विंटल 1331 रुपये आती है. इसका मतलब यह है कि यहां के किसानों को एमएसपी पर धान बेचने पर प्रति क्विंटल 969 रुपये का फायदा हुआ.
दूसरी ओर, महाराष्ट्र में प्रति क्विंटल धान पैदा करने की लागत ही एमएसपी से कहीं काफी अधिक 3057 रुपये प्रति क्विंटल थी. इसलिए वहां के किसानों के लिए धान की एमएसपी किसी काम की नहीं रही. धान की एमएसपी की लीगल गारंटी भी मिल जाए तो भी महाराष्ट्र के किसान घाटे में ही रहेंगे. हालांकि राज्य के कुछ जिलों में कंडीशन ऐसी है कि मजबूरन धान की खेती करनी पड़ती है.
उधर, केरल के किसानों को एक क्विंटल धान पैदा करने में औसतन 1888 रुपये खर्च करने पड़े. इस तरह यहां पर किसानों को एमएसपी की गारंटी मिल भी जाए तो प्रति क्विंटल सिर्फ 412 रुपये का ही फायदा होगा. उत्पादन लागत के सारे आंकड़े हमने फसलों का दाम करने वाले CACP से लिए हैं. हमने धान और गेहूं की ही बात इसलिए की है क्योंकि सरकार एमएसपी के लिए रखे गए बजट का ज्यादातर हिस्सा इन्हीं दो फसलों पर ही खर्च करती है.
निष्कर्ष यह है कि दो प्रमुख फसलें गेहूं और धान दोनों को एमएसपी पर बेचने से पंजाब और हरियाणा को सबसे ज्यादा फायदा हो रहा है. इसके बावजूद यहीं के किसान बार-बार निकलकर सड़क पर आ रहे हैं. हमारी रिसर्च में पता चला है कि साल 2022-23 में केंद्र द्वारा एमएसपी पर खर्च की गई कुल रकम का लगभग 33 फीसदी सिर्फ पंजाब और हरियाणा को मिला. इसी फायदे की वजह से यहां पर दलहन, तिलहन और मोटे अनाजों को छोड़कर किसानों ने अंधाधुंध धान और गेहूं पैदा किया है. जिसका साइड इफेक्ट पाताल में जाते पानी और जमीन की खत्म होती उर्वरता के तौर पर देखने को मिल रहा है. लेकिन मुद्दा यह है कि एमएसपी को लेकर इतना भेदभाव क्यों है? बाकी सूबों के किसानों के साथ कब न्याय होगा?
दरअसल, CACP एमएसपी तय करने का काम करता है. यह संस्था फसलों की मांग-आपूर्ति की परिस्थिति, घरेलू और वैश्विक मार्केट प्राइस ट्रेंड्स और अलग-अलग राज्यों की इनपुट कॉस्ट का औसत निकालकर एमएसपी तय कर देती है. राज्यों की सिफारिशें दरकिनार कर दी जाती हैं. हालांकि, सीएसीपी ने खुद अपनी ही तमाम रिपोर्टों में यह बताया है कि कैसे एक ही फसल की लागत हर राज्य में अलग अलग होती है. तो फिर सवाल ये उठता है कि फिर एमएसपी एक क्यों? किसान नेता इस पर बात कब करेंगे? संसद में इस मुद्दे पर कब बात होगी?
सवाल यह भी है कि क्या इसीलिए एमएसपी की वर्तमान व्यवस्था पूरे देश के किसानों को जोड़ नहीं पाती. गारंटी मिल भी जाए तो क्या पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को छोड़कर किन्हीं दूसरे राज्यों के किसानों को उसका फायदा मिलेगा? दरअसल, एमएसपी पर गारंटी से बड़ा सवाल भेदभाव का है, जिसकी वजह से कम और अधिक लागत लगाने वाले किसानों को एक ही एमएसपी थोपी जा रही है.
अब कुछ लोगों के मन में यह सवाल होगा कि फसल एक है तो हर राज्य में लागत कैसे घट और बढ़ जाती है. दरअसल, हर राज्य में श्रमिकों का खर्च अलग-अलग है, खेती में इस्तेमाल होने वाली मशीनों, खाद, पानी, कीटनाशक, वर्किंग कैपिटल, जमीन की रेंटल वैल्यू और बीजों के दाम अलग-अलग होते हैं. कहीं पानी बहुत कीमती है, कहीं फ्री में मिल रहा है.
कहीं खेती के लिए बिजली फ्री है तो कहीं इसके लिए पैसा देना पड़ता है. कुछ राज्यों में फसल बीमा फ्री है तो कुछ में किसानों को खुद पैसा देना पड़ता है. इसीलिए एक ही फसल की लागत किसी सूबे में कम किसी में अधिक है. एमएसपी तय करने का पैमाना काफी दोषपूर्ण है. इससे उन राज्यों के किसानों के साथ अन्याय होता है जिनमें लागत अधिक आती है. लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि हमारे किसान नेता और सांसद-मंत्री कब इस बात को समझेंगे?
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