Bidesiya: जाति-भेद और जमीन हड़पने की राजनीति के बीच फंसे प्रेम की हृदय-स्पर्शी कहानी

Bidesiya: जाति-भेद और जमीन हड़पने की राजनीति के बीच फंसे प्रेम की हृदय-स्पर्शी कहानी

‘बिदेसिया’ की कहानी पर बात करने से पहले इसके निर्देशक और हीरो के बारे में जानना दिलचस्प होगा. इस फिल्म के निर्देशक थे श्री नाथ त्रिपाठी यानी एस एन त्रिपाठी. ये मूलतः संगीतकर थे. इन्होने बहुत सी हिन्दी फिल्मों में यादगार संगीत दिया.

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Bidesiya: जाति-भेद और जमीन हड़पने की राजनीति के बीच फंसे प्रेम की हृदय-स्पर्शी कहानीभोजपुरी फिल्म ‘बिदेसिया’

भोजपुरी संभवतः उत्तर भारत में बोली जाने वाली लोक भाषाओं और बोलियों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है. भोजपुरी साहित्य भी बहुत समृद्ध रहा है और भोजपुरी सिनेमा बहुत पॉपुलर. बल्कि हिन्दी फिल्मों में तो हाल-फिलहाल तक ये चलन था कि ग्रामीण पृष्ठभूमि का किरदार अक्सर भोजपुरी लहजे में बात करता दिखाई देता था. आजकल भोजपुरी सिनेमा लगभग 2000 करोड़ का उद्योग माना जाता है. लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस भाषा का सिनेमा धीरे-धीरे अश्लीलता और फूहड़ता की गर्त में डूबता गया है. आज हालात ये हैं कि भोजपुरी फिल्म को परिवार के साथ बैठ कर नहीं देखा जा सकता और तमाम द्विअर्थी संवादों और गानों से भरी इन फिल्मों में कलात्मकता नहीं रह गई है ना ही ये भोजपुरी अंचल की जमीनी हकीकत से जुड़ा हुआ है.

लेकिन वर्ष 2000 से पहले ऐसा नहीं था. भोजपुरी सिनेमा की भी एक स्वस्थ परंपरा थी. ज़्यादा फिल्में नहीं बनती थीं लेकिन इनमें गांव, किसान और परिवार से जुड़े मुद्दों को संवेदनशीलता से उठाया जाता था. यहां ये बताना मुनासिब होगा कि भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ 1963 में रिलीज हुई थी और इसे बनाने की प्रेरणा भारत के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने दी थी. फिल्म का निर्देशन किया था कुन्दन कुमार ने और संगीत दिया था हिन्दी फिल्म के मशहूर संगीतकार चित्रगुप्त ने. लता मंगेशकर और मुहम्मद रफी ने बहुत मधुर गीत गाये थे. फिल्म रिलीज़ होते ही हिट हो गई थी. लेकिन आज हम बात करेंगे भोजपुरी में बनी दूसरी फिल्म ‘बिदेसिया’ की. अक्सर यह मान लिया जाता है कि 1963 में ही रिलीज हुई ‘बिदेसिया’ भोजपुरी साहित्य के जनक माने जाने वाले भिखारी ठाकुर के नाटक ‘बिदेसिया’ पर आधारित है. जबकि ऐसा नहीं है. फिल्म ‘बिदेसिया’ का नाम कहानी के नायक के नाम पर है.

जानेें कौन हैं बिदेसिया फिल्म के हीरो

‘बिदेसिया’ की कहानी पर बात करने से पहले इसके निर्देशक और हीरो के बारे में जानना दिलचस्प होगा. इस फिल्म के निर्देशक थे श्री नाथ त्रिपाठी यानी एस एन त्रिपाठी. ये मूलतः संगीतकर थे. इन्होने बहुत सी हिन्दी फिल्मों में यादगार संगीत दिया. ‘जय हिन्द!’ नारे को भी एक गीत में प्रयोग करने वाले ये पहले संगीतकार थे. इनके कुछ अविस्मरणीय गीत हैं: ‘ज़रा सामने तो आ ओ छलिए...!’ ‘ना किसी की आँख का नूर हूं..’ और ‘लगता नहीं है दिल मेरा, उजड़े दायर में...’. बतौर अभिनेता भी एस एन त्रिपाठी ने कई फिल्मों में काम किया. वे धार्मिक फिल्मों में हनुमान के रोल में बहुत लोकप्रिय हुए. ‘बिदेसिया’ उनकी पहली भोजपुरी फिल्म थी. इस फिल्म में भी उन्होने दारोगा की भूमिका निभाई.

फिल्म के नायक थे सुजीत कुमार. जी हां, ये वही सुजीत कुमार हैं जिन्हें हम राजेश खन्ना पर फिल्माए प्रसिद्ध गीत ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू...’ में उनके साथ बैठे माउथ ऑर्गन बजाते हुए देख सकते हैं. इन्होने भी अनेक हिन्दी फिल्मों में काम किया. बतौर नायक ‘बिदेसिया’ उनकी पहली फिल्म थी और इस फिल्म के बाद वे भोजपुरी क्षेत्र में इतने प्रसिद्ध हो गए कि लगभग हरेक फिल्म में उन्हें नायक के तौर पर लिया जाने लगा. 1960 से लेकर 1990 तक सुजीत कुमार भोजपुरी और हिन्दी सिनेमा में न सिर्फ सक्रिय रहे बल्कि बहुत लोकप्रिय भी.

जानते हैं बिदेसिया फिल्म की कहानी

अब हम आते हैं ‘बिदेसिया’ की कहानी पर. वैसे तो यह एक सरल सी प्रेम कहानी है लेकिन इस कहानी के विभिन्न आयाम उत्तर भारत के ग्रामीण समाज की कुछ अहम समस्याओं को दर्शाते हैं. कहानी का नायक बिदेसी ठाकुर ऊंची जाति के जमींदार का बेटा है. उसके पिता ने अपना सारा जीवन और संपत्ति गांव से जाति-भेद खत्म करने में लगा दी थी. लेकिन उसकी मृत्यु के बाद बची-खुची जमीन को हथिया लेता है, बिदेसी का चाचा – छोटे ठाकुर.

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बिदेसी को जीविका चलाने के लिए पान की दुकान लगानी पड़ती है. बिदेसी यानी बिदेसिया का प्रेम एक छोटी जाति की लड़की परबतिया से हो जाता है. इस पर पूरा गांव आक्रोशित हो जाता है. गांव वालों के रोष को हवा देने का काम करता है बिदेसी का चाचा. आखिरकार परबतिया के पिता के कहने पर बिदेसिया शहर चला जाता है और इक्का चला कर आजीविका कमाने लगता है. कुछ ही दिनों में परबतिया का पिता गंभीर रूप से बीमार हो जाता है और मरने से पहले वह बिदेसिया को वापिस बुलाता है और परबतिया से उसके रिश्ते को स्वीकृति दे देता है.

उधर, छोटे ठाकुर की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है बिदेसिया. वह किसी तरह बिदेसिया से छुटकारा पाना चाहता है ताकि हड़पी हुई जमीन पर कोई सवाल उठाने वाला न बचे. हालात ऐसे होते हैं कि वह बिदेसिया को बंदूक से मारने की कोशिश करता है लेकिन बीच में परबतिया आकर बिदेसिया की जान बचा लेती है पर खुद दम तोड़ देती है.

बेरोजगारी, जमीन को लेकर बनी है फिल्म

फिल्म बहुत संवेदनशीलता से जाति-भेद, बेरोजगारी, जमीन को लेकर किसान परिवारों की लड़ाई और गांव से शहर की तरफ पलायन –जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों को सामने लाती है. साथ ही, अहिंसक तरीकों से ऐसी समस्याओं का हल ढूंढने के लिए प्रेरित भी करती है. जैसे एक दृश्य में छोटे ठाकुर के गुर्गे नीची जाति की औरतों को एक कुएं से पानी भरने से रोकते हैं तो ऊंची जाति की विधवा भौजाई उन्हें अपने कुएं से पानी लेने देती है. इस तरह एक झगड़ा शांतिपूर्ण तरीके से सुलटा लिया जाता है.

फिल्म का संगीत दिया है एस एन त्रिपाठी ने. लोकगीत शैली कजरी और बिरहा का बहुत अच्छा प्रयोग किया गया है. और गीतों को स्वर दिया है सुमन कल्याणपुर, गीता दत्त, मन्ना डे और महेंद्र कपूर ने. चूंकि फिल्म कुछ संवेदनशील मुद्दों पर केन्द्रित थी इसलिए संवादों और स्क्रीनप्ले का अच्छा होना जरूरी था. राम मूर्ति चतुर्वेदी ने ये कमान संभाली. उन्होने फिल्म के संवाद और गीत भी लिखे. जिस तरह उन्होने भाषा का इस्तेमाल किया है, उससे अंदाजा हो जाता है कि उन्हें भोजपुरी की कितनी अच्छी समझ थी और उस अंचल की आत्मा से वे किस कदर वाकिफ थे.

पारिवारिक लड़ाई और रोजगार पर बनी है फिल्म

उनके कुछ संवाद भोजपुरी फिल्मों में अमर हो गए और हिन्दी में भी आज तक उनका इस्तेमाल किया जाता है. मिसाल के तौर पर- “भूक ना जाने बासी भात, नींद ना जाने टूटी खाट, प्रीत ना जाने जात-कुजात!” या फिर, “औरत के लगन और मरद के आन, बड़ी मुश्किल से टूटेला!” या “गरीब के गाल पर नीसान ना रही, त गरीब थोड़े कहाई!” इस फिल्म ने ये साबित किया कि किस तरह एक व्यावसायिक फ्रेमवर्क में सफलतापूर्वक गंभीर सिनेमा बनाया जा सकता है.

जाति-भेद, जमीन का बंटवारा और इसे लेकर पारिवारिक लड़ाई, गांव से शहर की तरफ रोजगार के लिए पलायन-ये आज भी ऐसी समस्याएं हैं जो दीमक की तरह हमारे किसानों को खाए जा रही हैं. इसलिए ये फिल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 1963 में थी. हिन्दी में भी जाति-भेद को लेकर बिमल रॉय ने 1960 में फिल्म बनाई थी जिसका नाम था –‘सुजाता’. लेकिन ‘सुजाता’ शहरी भारत की बात करती है जबकि ‘बिदेसिया’ ग्रामीण समाज की.

जानें कौन हैं बिदेसिया फिल्म की नायिका 

‘बिदेसिया’ की नायिका थीं हिन्दी की सुपरिचित अभिनेत्री नाज़. पद्मा खन्ना भी इसमें अहम भूमिका में थीं और विलेन के किरदार में थे जीवन. इस फिल्म में हिन्दी की सुप्रसिद्ध नर्तकी और अभिनेत्री हेलेन ने भी नौटंकी नृत्य किया, जो बहुत लोकप्रिय हुआ. ‘बिदेसिया’ बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त हिट हुई और इसने रास्ता साफ किया अगली फिल्म ‘दंगल’ का जो ना सिर्फ भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म थी बल्कि इसने फिल्म इंडस्ट्री को एक सफल संगीत जोड़ी भी दी, जिसका नाम था- नदीम श्रवण.

यह दुखद है कि आज की भोजपुरी फिल्मों का नाता असलियत से टूट गया है और ये सिर्फ सस्ता और अश्लील मनोरंजन भर रह गई हैं. ‘बिदेसिया’ इस बात का जीवंत उदाहरण है गंभीर सिनेमा रोचक और दिलचस्प भी हो सकता है, मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबद्धता और जुड़ाव में पगा भी.

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