किसानों में जैविक खेती का क्रेज बढ़ने के साथ ही गोबर सहित अन्य जैविक कचरे से बनने वाली वर्मी कंपोस्ट की मांग और इसका कारोबार भी तेजी से बढ़ रहा है. इस खाद को बनाने में केंचुए की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. जैविक खेती कर रहे किसान या तो खुद वर्मी कंपोस्ट बनाते हैं, या इसे बाजार से खरीदते हैं. वर्मी कंपोस्ट के बढ़ते बाजार को देखते हुए इसे जल्द बनाने के लिए ज्यादा कीमत पर मिलने वाले विदेशी केंचुए की मांग भी बढ़ गई है. किसानों के मन में यह धारणा है कि ऑस्ट्रेलिया के केंचुए से कम समय में ज्यादा वर्मी कंपोस्ट बनाई जा सकती है. इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह साबित हो गया है कि भारत की मिट्टी में पनपने वाला देसी केंचुए से ही ज्यादा खाद बनाई जा सकती है.
यूपी के झांसी में स्थित रानी लक्ष्मीबाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय में वर्मी कंपोस्ट बनाने के लिए भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई केंचुआ पर शोध किया गया. दोनों किस्म के केंचुए की खाद बनाने की क्षमता को परखने के लिए हुई रिसर्च में भारतीय केंचुए ने बाजी मार ली. मजेदार बात यह रही कि खाद बनाने की क्षमता के मामले में भारत केंचुआ ने दो गुने से भी ज्यादा अंतर से ऑस्ट्रेलिया के केंचुए को पछाड़ दिया.
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डॉ सिंह ने बताया कि विश्वविद्यालय परिसर से एकत्र की जाने वाली घास, पत्ते, कूड़ा और गाय का गोबर कंपोस्ट पिट में एकत्र किया गया. इसमें दोनों किस्म के केंचुओं को छोड़ने के बाद इनके द्वारा खाद बनाने की गति का आकलन किया गया. कंपोस्ट पिट में जैविक कचरे को सड़ाने के लिए निश्चित मात्रा में पानी को एक से दो महीने तक पिट में डाला जाता है. पिट में एक निश्चित स्तर तक पानी पहुंचने के बाद निकासी पाइप से पानी बाहर निकलने लगता है.
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यह पानी, खाद में मिले खनिज तत्वों से भरपूर होता है. खाद बनने के दौरान ही मिलने वाले इस पानी का उपयोग खेती में किया जाता है. डॉ सिंह ने बताया कि पौधों की सेहत के लिए यह पानी खाद से भी ज्यादा लाभदायक होता है. इसे किसानों को बेचा भी जाता है. जैविक खेती करने वाले किसान इस पानी को Booster & Aggregator के रूप में इस्तेमाल करते है. इसे विश्वविद्यालय से 400 रुपये प्रति लीटर की कीमत पर किसान खरीदते हैं.
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