मेंथा की खेती एक लाभकारी विकल्प हो सकती है, खासकर उन किसानों के लिए जो पारंपरिक खेती से ऊब चुके हैं और बेहतर लाभ की तलाश में हैं. इसकी खेती से न केवल आय में वृद्धि होती है, बल्कि इसकी खेती के लिए कम पानी और कम देखभाल चाहिए होती है. किसानों को इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए और सरकार की ओर से मिलने वाली सहायता का भी लाभ उठाना चाहिए, ताकि वे अपनी आय में सुधार कर सकें और भारतीय कृषि को एक नई दिशा दे सकें. ऐसी फसलों में मेंथा एक बेहतरीन विकल्प बन सकती है.
मेंथा की खेती से किसान अपनी आय को कई गुना बढ़ा सकते हैं, और इसे उगाना भी अपेक्षाकृत आसान है. मेंथा की खेती में कई लाभ हैं. सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मेंथा के पौधे आवारा पशुओं जैसे नीलगाय, जंगली सूअर आदि से सुरक्षित रहते हैं, क्योंकि इसके पत्तों में कड़वाहट होती है और पशु इन्हें नहीं खाते. इसके अतिरिक्त, मेंथा की खेती से किसानों को अच्छा लाभ मिलता है. उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब राज्य के किसान बड़े पैमान पर मेंथा की खेती कर बेहतर लाभ कमा सकते है. पिछले कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है. स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मेंथा के तेल और अन्य उत्पादों की भारी मांग है. आज हमारा देश मेंथा उत्पादन में अग्रणी है और इससे हर साल लगभग 800 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है.
सीमैप लखनऊ के अनुसार, जनवरी से फरवरी महीने में मेंथा की नर्सरी तैयार की जाती है. इसमें सकर्स (मेंथा की जड़) को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर लगाया जाता है. उसके बाद मार्च से अप्रैल के पहले सप्ताह तक पौधों की रोपाई खेत में कर दी जाती है. किसान के पास खेत खाली हो, तो वह फरवरी में भी मेंथा की फसल लगा सकते हैं. नर्सरी में मेंथा के सकर्स (जड़ों के टुकड़े) को 20 फीट लंबे और 20 फीट चौड़े खेत में लगाया जाता है. एक एकड़ के लिए भूमि में लगभग 30 से 35 किलो सकर्स की जरूरत होती है. मेंथा की बेहतरीन किस्में हैं कुशल, सक्षम, कोसी, हिमालयन, गोल्डन, सिम और उन्नति. इनमें से सिम और उन्नति किस्में सीमैप लखनऊ द्वारा विकसित की गई हैं. इन किस्मों से एक एकड में भूमि पर लगभग 60 से 70 लीटर तेल प्राप्त किया जा सकता है.
रोपाई करते समय किसान को यह ध्यान रखना चाहिए कि पौधों के बीच की दूरी 30-40 सेंटीमीटर होनी चाहिए. इसके अलावा, खेत में उचित खाद और उर्वरकों का उपयोग भी आवश्यक होता है. कंपोस्ट खाद का प्रयोग 10-15 दिन पहले खेत में किया जाता है, और सामान्यत: 65 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 16 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर उपयोग किया जाता है.
मेंथा के पौधों को नियमित सिंचाई की जरूरत होती है. सिंचाई की जरूरत भूमि के प्रकार, तापमान और हवा की तीव्रता पर निर्भर करती है. आमतौर पर, जनवरी और फरवरी के महीने में 10-12 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जाती है, जबकि मार्च से लेकर कटाई तक यह अंतराल 7-8 दिनों का हो जाता है. सिंचाई के दौरान यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि खेत में पानी का जमाव न हो क्योंकि इससे पौधों की जड़ें सड़ सकती हैं. मेंथा की खेती में खरपतवारों का नियंत्रण भी जरूरी होता है. इसकी पहली गुड़ाई 15-20 दिन बाद और दूसरी गुड़ाई 45 दिन बाद की जानी चाहिए. रासायनिक नियंत्रण के लिए पेंडामेथेलिन 3.3 लीटर को 500-700 लीटर पानी में घोलकर 2-3 दिन बाद स्प्रे किया जाता है.
मेंथा की खेती में पहली कटाई लगभग 90 दिनों बाद की जाती है जब पौधे फूल देने लगते हैं. कटाई के बाद पत्तियों से तेल निकालने के लिए पेराई की जाती है. दूसरी कटाई 120 दिनों बाद की जाती है. तेल निकालने के लिए डिस्टिलेशन विधि का उपयोग किया जाता है जिससे मेंथा का तेल व्यावसायिक उपयोग के लिए तैयार होता है. एक एकड़ में मेंथा की खेती से 20-25 टन तक फसल मिलती है. इस फसल से 60-70 लीटर तक तेल प्राप्त होता है और इसका तेल बाजार में 1000 रुपये प्रति लीटर या उससे भी अधिक दाम पर बिकता है. ऐसे में एक एकड़ में मेंथा की खेती से लागत निकालने के बाद 50 हजार रुपये तक का शुद्ध मुनाफा कमाया जा सकता है. अगर आप भी मेंथा की खेती से अच्छा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो परंपरागत फसलों को छोड़कर मेंथा की खेती शुरू कर सकते हैं.
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