भारत हर साल लगभग 700 टन लेमनघास के तेल का उत्पादन करता है. इसकी बड़ी मात्रा निर्यात की जाती है. एरोमा मिशन के तहत जिन औषधीय और सगंधीय पौधों की खेती का क्षेत्र बढ़ रहा है, उनमें एक लेमनघास भी है. कृषि वैज्ञानिक अश्विन कुमार मीणा, आरएन मीणा , कार्तिकेय चौधरी और कमलेश मीणा बताते हैं कि एंटीऑक्सीडेंट के सबसे बेहतर स्रोत लेमनघास में विटामिन 'सी' भारी मात्रा में होता है. दुनिया की बड़ी आबादी इसकी चाय यानी लेमन टी पीने लगी है. इसके तेल का सबसे ज्यादा उपयोग इत्र और सौंदर्य प्रसाधन उद्योगों में होता है और जैसे-जैसे ये उद्योग बढ़ रहे हैं, लेमनघास की मांग भी बढ़ी है.
किसानों के लिए यह फायदे की खेती बनती जा रही है. इसकी खूबी यह है कि इसे सूखा प्रभावित इलाकों में भी लगाया जा सकता है. किसान सही तरीके से इसकी खेती कर अच्छा मुनाफा और उत्पादन दोनों ले सकते हैं. लेमनग्रास एक सुगंधित बारहमासी घास है. इसे स्थानीय भाषा में नीबू घास, मालाबार घास एवं कोचिन घास के नाम से भी जाना जाता है.
देश में इसकी खेती महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश तथा सिक्किम में व्यावसायिक स्तर पर की जाती है. इसकी पत्तियों का प्रयोग लेमन-टी, साबुन, डिटर्जेंट, तेल, मच्छर लोशन, सिरदर्द की दवा, इत्र एवं सौंदर्य प्रसाधनों जैसे उत्पाद बनाने में किया जाता है.
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लेमनग्रास की खेती के लिए उष्ण एवं उपोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु उपयुक्त रहती है. इसकी खेती शुष्क जलवायु एवं कम जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है. इसकी खेती प्रमुख रूप से वर्षा आधारित असिंचित दशा में की जाती है. समान रूप से वितरित 250 से 300 मिमी वर्षा वाले क्षेत्र इसके लिए उपयुक्त माने जाते हैं.
लेमनग्रास की खेती कम उपजाऊ, बंजर एवं क्षारीय मिट्टी जिनका पी-एच मान 9.5 तक हो, में सफलतापूर्वक की जा सकती है. अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट एवं पहाड़ी मृदा इसके लिए सर्वोत्तम मानी जाती है.
लेमनग्रास की फसल से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए एक से दो जुताई कल्टीवेटर या डिस्क हैरो की सहायता से करनी चाहिए. जुताई के बाद हल्का पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए.
लेमनग्रास की नर्सरी तैयार करने के लिए अप्रैल-मई का समय उपयुक्त रहता है. इसके लिए 1-1.5 मीटर चौड़ी एवं उठी हुई क्यारियां तैयार करके बीजों की बुवाई की जाती है. एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपाई करने हेतु नर्सरी के लिए 4 से 5 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता है. बीजों की बुवाई करने के तुरन्त बाद सिंचाई करनी आवश्यक होती है. इस तरह 5-6 दिनों बाद बीज अंकुरित हो जाते हैं.
नर्सरी में पौधे लगभग 60 दिनों बाद रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसकी रोपाई के लिए जून-जुलाई का समय उपयुक्त रहता है. रोपाई 40×40 सें.मी. अथवा 40×30 सें.मी. की दूरी एवं 15 सें.मी. की गहराई पर करनी चाहिए.
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