ऊसर यानी बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए केंद्र सरकार और प्रदेश की सरकारों ने भी खूब काम किए हैं, जिसका अपेक्षित परिणाम भी देखने को मिला है, लेकिन अभी भी देश में 6.73 मिलियन हेक्टेयर भूमि अभी भी समस्या ग्रस्त है. उत्तर प्रदेश में 1.37 मिलियन हेक्टेयर भूमि ऊसर प्रभावित है, जिससे रेह के नाम से भी जाना जाता है. इस प्रकार की भूमि में खेती करना आसान काम नहीं है. ऊसर भूमि की समस्याओं का परीक्षण करने के बाद इन में लगाई जाने वाली फसलों में सिंचाई पद्धति का बहुत बड़ा योगदान होता है. उसर भूमि में भी खरीफ के अंतर्गत धान की फसल लगाई जाती है क्योंकि धान में भूमि की उसरता को सहन करने की क्षमता सबसे अधिक होती है. धान को अर्ध-जलीय फसल की उपाधि भी दी जाती है. धान के उत्पादन में जल प्रबंधन का काफी महत्वपूर्ण योगदान होता है. केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान के क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र लखनऊ की वैज्ञानिक अतुल कुमार सिंह ने किसानों के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए हैं, जिनको अपनाकर कम पानी से धान की अच्छी उपज ली जा सकती है.
धान की फसल उगाने के दौरान नर्सरी उगाना, खेत की तैयारी करना, धान की रोपाई से पकने तक महत्वपूर्ण क्रियाएं होती है. इन सभी क्रियाओं के लिए जल की आवश्यकता भिन्न होती है. धान में लगभग 90 से 200 सेमी जल की आवश्यकता होती है, जो मृदा प्रकार एवं उसकी गुणवत्ता पर आधारित होती है.धान में सिंचाई के लिए कई पद्धतियों का इस्तेमाल होता है. सिंचाई के लिए निरंतर जलमग्नता, क्रमानुसार जलमग्नता, आवश्यकतानुसार समय-समय पर जलमग्न विधियों का प्रयोग होता है. केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ अतुल कुमार सिंह ने बताया इन पद्धतियों का बेहतर उपयोग करके उसर भूमि में भी धान की फसल से उत्पादन लिया जा सकता है.
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खरीफ सीजन के अंतर्गत धान की नर्सरी से लेकर फसल को तैयार होने तक सबसे ज्यादा जल की आवश्यकता होती है. एक किलोग्राम चावल पैदा करने के लिए लगभग 1800 लीटर से लेकर 4000 लीटर जल की आवश्यकता होती है. वहीं जल प्रबंधन के द्वारा ही कम पानी में भी अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है.
केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान के क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र लखनऊ के वरिष्ठ वैज्ञानिक अतुल कुमार सिंह ने बताया की बंजर भूमि में धान की फसल के प्रयोग किया गया, जिसमें धान की फसल में सिंचाई जल की मात्रा एवं सिंचाई के अंतराल में विविधता लाकर कैसे जल उत्पादकता को बढ़ाया जा सके, जिससे फसल की पैदावार एवं गुणवत्ता पर भी कोई असर ना हो. धान की फसल में 7 सेमी गहरी सिंचाई 3 दिन के अंतराल पर करने से अधिकतम ऊपर 49 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हुई. इसके परिपेक्ष में 5 सेमी गहरी सिंचाई 3 से 5 दिन के अंतराल पर करने से धान की उपज 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हुई. वही पारंपरिक सिंचाई पद्धति के मुकाबले 5 सेमी सिंचाई जल की मात्रा को नियंत्रित प्लाट में जल जमाव हटने के 5 दिन बाद सिंचाई करने से उत्पादकता भी अधिकतम पाई गई. वहीं पारंपरिक सिंचाई पद्धति के मुकाबले सिंचाई जल की 50% बचत भी हुई.
धान की फसल में निरंतर जलमग्नता आवश्यक नहीं है. ऐसा करने से अनावश्यक सिंचाई जल एवं सिंचाई हेतु उपयोग होने वाले संसाधनों की हानि होती है. सामान्य भूमियों में धान की फसल में 5 से 10 सेमी गहरी सिंचाई 2 से 3 दिनों के अंतराल पर और उसर भूमि में 5 सेमी पहली सिंचाई 3 से 5 दिनों के अंतराल पर करने से अच्छी उपज के साथ-साथ सिंचाई जल एवं अन्य संसाधनों की भी बचत होती है.
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