रैक में पराली पर मशरूम की खेती का अनोखा तरीकाशहरों और कस्बों में बढ़ती आबादी से घरों में जगह कम हो गई है. लोगों के पास बस बालकनी, छत या छोटा-सा आंगन ही होता है. वे ताजी सब्जियां उगाना चाहते हैं, लेकिन जगह की कमी आड़े आ जाती है. दूसरी ओर, कई महिलाएं और युवा घर बैठे कुछ अतिरिक्त कमाई करना चाहते हैं, पर उन्हें कम लागत और कम जगह वाले किसी मौके की तलाश रहती है. इन्हीं दो बड़ी समस्याओं का एक अनोखा हल निकाला है ओडिशा के खोरधा जिले के बिराजा प्रसाद पंडा ने. उन्होंने अपने लंबे अनुभव का इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी नई तरकीब खोजी है, जिसने न सिर्फ घर पर ताजी और पौष्टिक मशरूम उगाने का रास्ता खोला है, बल्कि धान की पराली जैसी बेकार चीज को भी कमाई का जरिया बना दिया है.
बिराजा प्रसाद पंडा ने एक और बड़ी राष्ट्रीय समस्या, यानी धान की पराली पर भी ध्यान दिया. हर साल लाखों टन पराली जलाने से भयंकर प्रदूषण फैलता है. पंडा ने सोचा कि क्यों न इस पराली की समस्या और घरों में जगह की कमी, इन दोनों को मिलाकर एक समाधान तैयार किया जाए? इसी सोच से उनके 'लो-कॉस्ट मशरूम कल्टीवेशन रैक' का जन्म हुआ.
लो-कॉस्ट मशरूम कल्टीवेशन रैक बहुत ही सादा, हल्का और मजबूत है, जो 'वर्टिकल फार्मिंग' का एक बेहतरीन नमूना है. यह रैक सिर्फ 4 फुट ऊंचा और 19 इंच लंबा और 19 इंच चौड़ा है. यानी यह घर के किसी भी कोने में आसानी से फिट हो सकता है. इसे मजबूत लोहे के मेटल और 1 इंच के पीवीसी पाइप से बनाया गया है, जो इसे हल्का और टिकाऊ बनाता है.
इसमें धान की पराली का इस्तेमाल कर मशरूम उगाने के लिए दो परतें दी गई हैं, लेकिन इसकी खास बात इसका वैज्ञानिक डिजाइन है. पंडा ने इसमें हवा के वेंटिलेशन का पूरा ख्याल रखा है. रैक में जमीन और पहली परत के बीच 6 इंच, जबकि पहली और दूसरी परत के बीच 21 इंच का गैप है. यह खास दूरी सुनिश्चित करती है कि मशरूम के बैगों को हर तरफ से ताजी हवा मिलती रहे, जिससे फंगस नहीं लगती और मशरूम का विकास तेजी से और स्वस्थ तरीके से होता है.
लो-कॉस्ट मशरूम कल्टीवेशन रैक की कीमच 900 रुपये है. इस पर जो पराली पहले जलाकर प्रदूषण फैलाती थी, अब वही कमाई और पोषण का साधन बन गई है. इस रैक में मशरूम उगाने के लिए पराली को ही सबसे अच्छे माध्यम के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. किसान या शहरी लोग अब पराली को जलाने की बजाय, उसे उपचारित करके और उसमें मशरूम का बीज मिलाकर बैग तैयार करते हैं और रैक पर रख देते हैं.
इस तरह, जो पराली कल तक समस्या थी, वही आज 'कचरे से कंचन बनकर पौष्टिक मशरूम दे रही है. इस छोटे से रैक का सामाजिक प्रभाव भी बहुत बड़ा है. यह महिलाओं और युवाओं को घर बैठे उद्यमी बनाकर अतिरिक्त आय का मौका देता है. साथ ही, शहरों में रहने वाले परिवारों को ताजा और केमिकल-रहित मशरूम मिलता है, जिससे पोषण सुरक्षा मजबूत होती है. इसकी सादगी और कम लागत के कारण, इस मॉडल को देश के किसी भी शहरी इलाके में आसानी से अपनाया जा सकता है. लेकिन अभी इस तकनीक का सरकारी सत्यापन बाकी है.
बिराजा प्रसाद पंडा अपने अनुभव और लगन से समाज की असली समस्याओं का हल ढूंढ निकालते हैं. उनका यह 900 रुपये का रैक सिर्फ लोहा और पीवीसी का ढांचा नहीं है, बल्कि यह आत्मनिर्भर भारत, स्वच्छ पर्यावरण और स्वस्थ समाज की ओर बढ़ाया गया एक मजबूत कदम है. यह साबित करता है कि अगर इरादा पक्का हो, तो कम जगह और कम लागत में भी बड़ी सफलता हासिल की जा सकती है.
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