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आप के घर और बीजेपी के गढ़ में कन्हैया का क्या होगा

आप के घर और बीजेपी के गढ़ में कन्हैया का क्या होगा

सबकी निगाह दिल्ली की नॉर्थ ईस्ट सीट पर है. मुकाबला दो 'बाहरी' नेताओं के बीच है. एक तरफ बीजेपी से मनोज तिवारी तो दूसरी ओर कांग्रेस से कन्हैया कुमार हैं. मजे की बात ये है कि जिस AAP की ये 'पुश्तैनी' सीट हुआ करती थी, इस बार वही पार्टी इस मैदान से बाहर है.

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मनोज तिवारी और कन्हैया कुमार मनोज तिवारी और कन्हैया कुमार

सुंदर नगरी के एक छोटे से घर में अरविंद केजरीवाल की वो यात्रा शुरू हुई थी, जिसने उन्हें दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाया. उस घर में केजरीवाल कई महीने तक रहे थे. सुंदर नगरी इलाका दिल्ली के बॉर्डर पर है, जहां से गाजियाबाद का साहिबाबाद और लोनी इलाका करीब पड़ता है. एक तरफ मदर टेरेसा का आनंद ग्राम है, तो दूसरी तरफ राजीव गांधी कैंसर हॉस्पिटल. जीटीबी और दयानंद सहित कई बड़े अस्पताल आस-पास हैं. यह पूरा क्षेत्र नॉर्थ ईस्ट दिल्ली लोकसभा सीट का है, जहां इस बार आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार नहीं है. 

दिलचस्प है कि जिस इलाके ने एक तरह से पार्टी को जन्म दिया और जिस कांग्रेस के खिलाफ पार्टी जन्मी (जैसा तब पार्टी दावा करती थी), उसी कांग्रेस के लिए इस बार आम आदमी पार्टी ने सीट खाली छोड़ी है. सपोर्ट कांग्रेस को है, जो इस बार जेएनयू की राजनीति से राष्ट्रीय पटल पर आए कन्हैया कुमार के भरोसे है. दो बार जीत चुके मनोज तिवारी सामने हैं. 

2020 दंगों के घाव अब भी लोगों के मन में हैं

नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली ऐसा इलाका है, जहां कई चरित्र मिलते हैं और बड़ी दिलचस्प तस्वीर बनाते हैं. पूर्वांचली बड़ी तादाद में हैं. इलाके की दस में से सात सीटें आम आदमी पार्टी के पास हैं. यही वो इलाका है, जहां 2020 के दंगे हुए थे. हिंदू-मुस्लिम दंगों के घाव अब भी मौजपुर, बाबरपुर से लेकर यमुना विहार और भजनपुरा जैसे इलाकों में ताजा हैं. करीब 30 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इलाके में 2020 दंगों के बाद पहली बार आम आदमी पार्टी से लोगों की नाराजगी नजर आई थी. नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली पर इस बार अगर कांग्रेस लड़ रही है, तो संभव है कि फैसला लेने में चार साल पहले के दंगों ने भी भूमिका निभाई हो. 

पूर्वांचल का चुनाव

कांग्रेस-आप के बीच समझौते की बड़ी और छोटी वजहें जो भी हों, उम्मीदवार के चयन में एक खास बात होती है पूर्वांचल. पिछले दो चुनाव से मोदी लहर तो पूरे देश में सबसे बड़ी वजह रही ही है, लेकिन मनोज तिवारी को उम्मीदवार चुनना पूर्वांचल की वजह से ही है. आम आदमी पार्टी ने भी 2014 में प्रोफेसर आनंद कुमार को चुना था. आनंद कुमार पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं. हालांकि तब आप के लिए उम्मीदवार चुनने का नजरिया अलग होता था. 2019 में दिलीप पांडेय खड़े हुए. वो भी पूर्वी उत्तर प्रदेश से आते हैं. इसी साल कांग्रेस ने शीला दीक्षित को उतारा. उनके चुनावी कैंपेन का फोकस भी काफी कुछ उत्तर प्रदेश की बहू पर था. इस बार कन्हैया हैं, जो बिहार के बेगूसराय से आते हैं.

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पिछले चुनाव में आप और कांग्रेस दोनों को मिलाकर 42 फीसदी वोट मिले थे, जबकि मनोज तिवारी को 54 फीसदी के करीब वोट मिले थे. सवाल यही है कि अगर तिवारी अपने वोट बचाकर रख पाते हैं, तो क्या कांग्रेस और आप के साथ आने का कोई फायदा होगा? दिलचस्प यह भी है कि 2014 के मुकाबले मनोज तिवारी के वोट करीब नौ फीसदी बढ़े थे. इस पूरे इलाके को विधानसभा के हिसाब से देखा जाए तो पिछली बार आम आदमी पार्टी को 53 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे. 

आप के वोट ट्रांसफर होंगे या पहले ही हो गए?

अब मुद्दा यह है कि आप मैदान में नहीं है. ऐसे में उसके वोट ट्रांसफर होंगे? एक बात तो तय है कि आप होती भी, तो 2020 के दंगों का असर उनके प्रदर्शन पर दिखता. उसका फायदा कांग्रेस को ही मिलता, जो इस बार समर्थन के साथ लड़ रही है. यानी 2020 ने बाबरपुर, सीलमपुर, जाफराबाद जैसे इलाकों में कांग्रेस के कोर वोटर्स को वापस कांग्रेस की तरफ लाने में मदद की है. पिछली बार बिहार बनाम बिहार नहीं था, जो इस बार है. लेकिन कद के हिसाब से पिछली बार दिल्ली की सबसे बड़ी नेता शीला दीक्षित सामने थीं. यह बताते हुए कि उनका आखिरी चुनाव है. इसके बावजूद बीजेपी लहर में उन्हें हार मिली. हालांकि वो दूसरे नंबर पर रहीं और 29 फीसदी वोट मिले. 

अब सवाल यह है कि घर आप का, गढ़ बीजेपी का, कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में चार फीसदी वोट भी नहीं मिले थे. उस विधानसभा चुनाव के बाद चार साल से ज्यादा वक्त बीत चुका है. इस दौरान भी कोई ऐसा काम कांग्रेस ने नहीं किया, जिससे कहा जा सके कि वोटर्स खुश होंगे. कन्हैया कुमार का सीधा कोई ऐसा संपर्क नहीं है, जो उन्हें नॉर्थ-ईस्ट के वोटर्स से जोड़े. फिर इस चुनाव को कांटे का क्यों कहा जा रहा है. 

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यकीनन एक वजह दोनों विपक्षी पार्टियों का साथ आना है. दूसरी वजह दो बार जीतने के बाद मनोज तिवारी को लेकर इलाके में थोड़ी उदासीनता है. पिछले चुनाव भी मनोज तिवारी अपने दम पर इतने लोकप्रिय नहीं थे. लेकिन पिछले दस साल में कंधे पर मोदी का हाथ हो तो आम आदमी खास हो जाता है. यही मनोज तिवारी के साथ हुआ. यकीनन फायरब्रैंड भाषण होंगे. यकीनन कन्हैया के भाषण को सुनने के लिए लोग जमा होंगे. लेकिन दरअसल, नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली का चुनाव जीतने से ज्यादा हार का है. अभी हालांकि एक महीना बाकी है. लेकिन इलाके में जाकर कही नहीं लगता कि इलेक्शन सिर पर हैं. इस बार के नतीजे कौन ज्यादा बेहतर है से ज्यादा इस पर तय होगा कि किसको लेकर उदासीनता कम है.