
गुलाम भारत को आजाद करवाने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ चले आंदोलन में किसानों की बहुत बड़ी भूमिका थी. उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए अनुचित टैक्स व्यवस्थाओं और नीतियों के खिलाफ संघर्ष किया. जब देश आजाद हुआ तो विज्ञान की मदद से उन्होंने भारत के लोगों को भुखमरी से बाहर निकाला और स्वाभिमान की जिंदगी दी. लेकिन, आजादी के 77 साल बाद भी वही किसान इस बात के लिए संघर्ष कर रहे हैं कि उन्हें उनकी उपजाई हुई चीजों का सही दाम मिले. किसान अपनी खेती के लिए जरूरी चीजों यानी इनपुट को एमआरपी (Maximum Retail Price) पर खरीदते हैं जबकि उनकी फसल की एमएसपी (Minimum Support Price) भी मयस्सर नहीं हो रही है. उनकी मेहनत पर कोई और मलाई खा रहा है.
सरकार कह रही है कि वो एमएसपी दे रही है और आगे भी यह व्यवस्था जारी रहेगी. लेकिन 'गारंटी' जैसे शब्द से सख्त परहेज कर रही है. दूसरी ओर, घाटे से बचाने के लिए चीनी मिल मालिकों सरकार ने ही चीनी के दाम की 'गारंटी' दी हुई है. बहरहाल, कड़वा सच तो यह है कि आज भी किसान बाजार में अपनी अधिकांश कृषि उपज एमएसपी से कम दाम पर ही बेचने के लिए मजबूर हैं. क्योंकि एमएसपी की व्यवस्था सिर्फ सरकार पर ही लागू है, खुले बाजार पर नहीं. सरकार जिन 23 फसलों की एमएसपी घोषित करती हैं उनमें से अधिकांश की खरीद नहीं करती है, नतीजा यह है कि किसान बाजार में उसे औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर हैं. जब कभी दाम बढ़ता है तो सरकार खुद ही उसे गिराकर किसानों का नुकसान कर देती है.
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कुछ लोग ऐसा कह रहे हैं कि किसानों को बाजार के हवाले छोड़ देना चाहिए, दूसरी तरफ जब गेहूं, चावल, मक्का, सरसों और सोयाबीन जैसी एमएसपी नोटिफाइड या प्याज जैसी गैर नोटिफाइड कृषि उपज के दाम बढ़ने शुरू होते हैं तब सरकार एक्सपोर्ट बंद करने, आयात करने या फिर आयात शुल्क कम करने जैसा खेल खेलना शुरू कर देती है, जिससे किसानों का नुकसान होता है. ऐसा करने के पीछे महंगाई का हवाला दिया जाता है. मतलब एक तरफ एमएसपी की गारंटी नहीं मिलेगी और दूसरी तरफ जब दाम बढ़ने शुरू होंगे तो उसे कम करवाने के लिए सरकार सामने आ जाएगी. दोहरे मानदंड की इस व्यवस्था में किसान पिस रहा है.
किसान सिर्फ यह कह रहे हैं कि बाजार में उनकी उपज उस दाम से कम कीमत पर न बिके जिसे खुद सरकार ने ही तय किया है. इसके लिए उन्हें कानूनी संरक्षण चाहिए. लेकिन, उनकी यह मांग न तो नौकरशाहों को मंजूर है, न अधिकांश अर्थशास्त्रियों और नेताओं को. उन्हें लगता है कि इससे महंगाई बढ़ जाएगी और देश की अर्थव्यस्था खतरे में पड़ जाएगी. हालांकि, इन्हीं नौकरशाहों, नेताओं और अर्थशास्त्रियों ने चीनी मिल मालिकों को घाटे से बचाने के लिए उन्हें 'गारंटी' दी हुई है.
किसानों की पैरोकारी करने वाले कृषि विशेषज्ञों और किसान नेताओं का कहना है कि जब आप गन्ने से बनी चीनी का न्यूनतम रेट फिक्स कर सकते हैं तब आपको फसलों से परहेज क्यों है? हम आपको सरकार के इस दोहरे मानदंड की कहानी भी समझा देते हैं. चीनी मिल मालिकों ने वर्तमान सरकार के सामने ही घाटे का रोना रोया था. यह बात 2018 की है. सरकार को बात तुरंत समझ में आ गई और उसने चीनी मिलों को घाटा न होने देने के लिए चीनी का न्यूनतम बिक्री मूल्य (Minimum Selling Price) 31 रुपये प्रति किलो तय कर दिया. जून, 2018 से अब तक यह व्यवस्था लागू है. इसके तहत घरेलू खपत के लिए मिल से 31 रुपये प्रति किलो से कम दाम पर चीनी नहीं मिल सकती.
इस वक्त चीनी का दाम 45 से 60 रुपये किलो के बीच है. यानी सरकार ने उन्हें यह संरक्षण दिया हुआ है कि उनकी चीनी 31 रुपये किलो से कम कीमत पर नहीं बिकेगी. मिल वाले अब चीनी का न्यूनतम बिक्रय मूल्य बढ़ाकर 42 रुपये प्रति किलो करने की मांग कर रहे हैं. बाकी ऊपर चाहे जितना दाम वो ले लें. बिल्कुल यही मांग किसान भी कर रहे हैं. महाराष्ट्र के किसान नेता और पूर्व सांसद राजू शेट्टी का कहना है कि किसानों के लिए ऐसी व्यवस्था लागू करने से परहेज क्यों? सरकार मिल मालिकों को गारंटेड इनकम दे सकती है तो फिर किसानों को क्यों नहीं? जबकि किसान तो बहुत गरीब हैं, उन्हें गारंटेड इनकम की ज्यादा जरूरत है. दरअसल, सरकार को मिल मालिकों की चिंता है, किसानों की नहीं.
सरकार के समर्थक किसान नेता और अर्थशास्त्री दोनों यह भ्रम फैला रहे हैं कि अगर गारंटी मिली तो सारी फसल सरकार को ही खरीदनी पड़ेगी और बजट का काफी हिस्सा इसी काम में खर्च हो जाएगा. हालांकि, सच तो यह है कि किसानों ने ऐसा कभी नहीं कहा कि फसलों के न्यूनतम दाम की गारंटी देने के बाद सारी खरीद सरकार ही करे. लेकिन, ऐसा परसेप्शन बनाया जा रहा है कि किसान सरकार पर बोझ हैं. किसानों का तो यह कहना है कि सरकार ऐसी कानूनी व्यवस्था बना दे जिससे कि फसलों की निजी खरीद भी एमएसपी से कम कीमत पर न हो सके.
एक तरफ सरकार के समर्थक किसान नेता, अर्थशास्त्री और नौकरशाह कह रहे हैं कि किसानों को एमएसपी की गारंटी नहीं दी जा सकती, क्योंकि इससे महंगाई बढ़ेगी और बाजार की व्यवस्था, जो मांग और आपूर्ति से संचालित होती है उसमें बाधा पड़ेगी. दूसरी ओर, वो अपने वेतन की गारंटी हर हाल में चाहते हैं. उन्हें अपनी मेहनत दिखती है लेकिन उनकी नजर में किसान की मेहनत की कोई कीमत नहीं है. जब तक सत्ता के गलियारों में ऐसे माइंडसेट के लोग हैं तब तक किसानों की राह आसान नहीं होगी.
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