
दालों के मामले में आत्मनिर्भर भारत का सपना देख और दिखा रहे नेताओं-नौकरशाहों को एक बार दलहन फसलों की एमएसपी और उनके मंडी भाव की टैली जरूर देखनी चाहिए. अगर दालों के मौजूदा मंडी भाव को देखेंगे तो पता चलेगा कि दलहन वाली फसलों से किसानों का यूं ही मोहभंग नहीं हो रहा है. चना, मसूर, मूंग, अरहर और उड़द जैसी प्रमुख दालों के दाम इस समय न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से नीचे आ गए हैं. दालों के दाम का यह हाल तब है जब भारत में डिमांड के मुकाबले सप्लाई कम है. जबकि कायदे से अगर बाजार में डिमांड ज्यादा और सप्लाई कम हो तो किसानों को बहुत अच्छा दाम मिलना चाहिए था. ऐसे में सवाल यह है कि क्या बाजार के नियम बदल गए हैं? नहीं, बाजार के नियम तो वही हैं. तो क्या सरकार की आयात नीति के कारण किसान एमएसपी से भी कम कीमत पर दाल बेचने को मजबूर हैं या फिर दाम के दुर्दशा की कोई और वजह है?
बहरहाल, इस समय बाजार विदेशों से मंगाई गई सस्ती दालों से भरा पड़ा है. लेकिन, इसका दुष्परिणाम क्या होगा? द ग्रेन, राइस एंड ऑयलसीड्स मर्चेंट्स एसोसिएशन (GROMA) के प्रेसीडेंट भीमजी एस. भानुशाली ने 'किसान तक' से कहा कि यदि वर्तमान स्थिति जारी रही तो सस्ते आयात के कारण भारत का घरेलू दाल व्यापार समाप्त हो जाएगा और भारत आत्मनिर्भर होने के बजाय 100 फीसदी आयात पर निर्भर हो जाएगा. विदेशी कंपनियों की नीति भारत में शुल्क मुक्त माल भेजकर भारतीय कृषि को नष्ट करना है. सरकार को इस मामले पर विशेष ध्यान देना चाहिए और एमएसपी से कम कीमत पर आयात की अनुमति नहीं देनी चाहिए. क्योंकि अगर किसानों को सही दाम नहीं मिलेगा तो किसान दलहन फसलों की खेती छोड़ देंगे. यह भारतीय खेती के लिए बड़ा खतरा होगा. आयात वाली नीतियों की वजह से ही पांच साल में दालों का आयात 8035 करोड़ रुपये से बढ़कर 46 हजार करोड़ रुपये के पार पहुंच गया है.
एगमार्कनेट के आंकड़े बता रहे हैं कि इस समय दालों का मंडी भाव एमएसपी से कम चल रहा है. इसका मतलब साफ है कि किसान घाटे में दालों को बेचने को मजबूर हैं. जिन किसानों को दलहन की खेती करने पर पुरस्कृत किया जाना चाहिए था उन्हें 'सरकारी तंत्र' कम दाम का दंड दे रहा है, जिससे किसान हताश और निराश हैं और वो दूसरी फसलों की ओर शिफ्ट हो रहे हैं. इसकी तस्दीक खुद कृषि मंत्रालय के आंकड़े कर रहे हैं. पिछले तीन साल में ही दलहन फसलों के एरिया में रिकॉर्ड 31.07 लाख हेक्टेयर की कमी दर्ज की गई है. नतीजा यह है कि तीन साल में दालों का आयात तीन गुना बढ़ गया है. सवाल यह है कि क्यों दालों के मामले में आत्मनिर्भर बनने की बजाय भारत आयात निर्भर बनता जा रहा है और ये सिलसिला आखिर बंद कब होगा?
आत्मनिर्भरता के सियासी नारे लगाने और दलहन मिशन के कागजी प्लान बनाने से बात न कभी बनी है और न बनेगी. कड़वी बात तो यह है कि जब तक किसानों को सही कीमत नहीं मिलेगी तब तक भारत में 'दाल के अकाल' का चैप्टर बंद नहीं होगा. केंद्र सरकार ने दावा किया है कि भारत दिसंबर 2027 से पहले दलहन उत्पादन के क्षेत्र में 'आत्मनिर्भर' हो जाएगा और देश को एक किलोग्राम दाल भी इंपोर्ट नहीं करनी पड़ेगी. लेकिन, अगर किसानों को एमएसपी से भी कम कीमत मिलेगी तो क्या यह संभव है? विशेषज्ञों का कहना है कि किसानों को अच्छा दाम देकर ही दालों की खेती का दायरा और उत्पादन बढ़ाया जा सकता है. आत्मनिर्भरता का दूसरा कोई सही रास्ता नहीं है.
नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दालों की वर्तमान खपत 290 लाख टन है, तो सवाल यह है कि 37.62 लाख टन दलहन की कमी को पूरा करने के लिए क्यों 72.6 लाख मीट्रिक टन दलहन का आयात किया गया. ऐसे में या तो नीति आयोग की रिपोर्ट गलत है या फिर कंज्यूमर को खुश करने के नाम पर, कृषि और किसान दोनों को जानबूझकर खतरे में डाल दिया गया है. इस समय घरेलू उत्पादन और आयात को जोड़ दिया जाए तो बाजार में 325 लाख मीट्रिक टन दाल मौजूद है. जबकि मांग 290 लाख मीट्रिक टन की है. सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या इसीलिए दालों के दाम की ऐसी दुर्गति हो रही है.
सवाल कृषि वैज्ञानिकों पर भी हैं क्योंकि दालों की पैदावार में हम विश्व औसत से भी बहुत नीचे हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (FAO) के मुताबिक साल 2022 में भारत एक हेक्टेयर में सिर्फ 766 किलो दाल पैदा कर रहा था, जबकि विश्व औसत 1015 किलो है. रूस में प्रति हेक्टेयर उपज 1996, इथोपिया में 1938, कनाडा में 1882 और चीन में 1848 किलो है. भारत दालों का बड़ा आयातक है इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि यहां प्रति हेक्टयर उपज बहुत कम है. वरना दुनिया में दलहन फसलों का 38 फीसदी एरिया भारत में होने के बावजूद हम दालों का आयात नहीं कर रहे होते. इसलिए वैज्ञानिक समुदाय की भी जवाबदेही तय करने का समय आ गया है.
कानपुर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पल्सेज रिसर्च के डायरेक्टर जीपी दीक्षित कहते हैं कि मध्य प्रदेश में पिछले पांच साल के दौरान चने की खेती का एरिया 35 लाख हेक्टेयर से घटकर 20 लाख हेक्टेयर रह गया है. वजह यह है कि वहां पर सिंचित एरिया बढ़ गया है, जिससे किसान चने की खेती छोड़कर गेहूं पर शिफ्ट हो गए, क्योंकि गेहूं का अच्छा दाम मिल रहा है. आवारा पशु भी इसकी एक बड़ी वजह हैं.
दीक्षित का कहना है कि कर्नाटक में बिल्ट और फंगल डिजीज ड्राई रूट राट की वजह से भी इसकी खेती में समस्या आई है. दलहन की फसल मौसम को लेकर बहुत सेंसिटिव होती है, इसीलिए क्लाइमेट चेंज का इस पर बहुत असर पड़ रहा है. वैज्ञानिक जलवायु अनुकूल दलहन वैराइटी विकसित करने में जुटे हुए हैं.
अगर भारत को दालों के मामले में आत्मनिर्भर बनाना है तो दो महत्वपूर्ण काम सबसे पहले करने होंगे. पहला यह कि खेती का दायरा बढ़ाना होगा. इसके लिए आयात को कम करके किसानों को अच्छी कीमत सुनिश्चित करनी होगी. दूसरा यह कि अच्छे बीजों की उपलब्धता और इसकी बुवाई से लेकर कटाई तक के काम के लिए धान-गेहूं वाली फसलों की तरह ही मशीनें विकसित करनी होगी. दलहन फसलों की खेती प्रॉफिटेबल होगी तो भला कौन किसान लाभ लेने से परहेज करेगा?
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