भारत में अखरोट की खेती ठंडे इलाके यानि पहाड़ी क्षेत्रों में की जाती है. अपने गर्म तासीर की वजह से इसकी मांग भारत के साथ-साथ विदेशों में काफी अधिक है. स्वाद और गुणों के कारण इसी कीमत हमेशा बनी रहती है जिस वजह से इसकी खेती कर रहे किसानों को अच्छा मुनाफा मिलता है. इसकी खेती कर किसान साल भर में अच्छी रकम कमा सकते हैं. ऐसे में जरूरी है कि किसानों के पास अखरोट की खेती कैसे की जाए इसकी सही जानकारी हो. तो चलिये जानते हैं कैसे की जाती है अखरोट की खेती:
अखरोट की खेती आम तौर पर भारत के उत्तर-पश्चिमी हिमालय या पहाड़ी इलाकों में की जाती है. वर्तमान में अखरोट की खेती जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल और अरुणाचल प्रदेश में होती है. लेकिन जम्मू-कश्मीर अखरोट का प्रमुख उत्पादन राज्य है. यहां अखरोट के दाम भी दूसरी जगहों के मुकाबले कम हैं.
अखरोट की खेती (Walnut Cultivation) के लिए ठंडी जलवायु उपयुक्त मानी जाती है लेकिन, हल्की गर्म जलवायु में भी इसकी खेती किसान कर सकते हैं. इसलिए इसकी खेती ज़्यादातर पहाड़ी इलाकों में ही की जाती है. वहीं बारिश की बात करें तो साल भर में इसके पौधे को 800 मीमी वर्षा की जरूरत होती है. अखरोट को दोमट मिट्टी जिसमें जैविक पदार्थ हो वह सबसे उपयुक्त मानी जाती है. इसके साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जलनिकासी की सही व्यवस्था है या नहीं. जलनिकासी की सही व्यवस्था इसकी खेती के लिए जरूरी है. वहीं दिसंबर से मार्च महीने के बीच इसकी खेती करने का सही समय है.
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अखरोट की खेती के लिए उन्नत किस्मों का चयन बहुत जरूरी है. खास तौर पर अगर आप व्यावसायिक रूप से इसकी खेती कर रहे हैं तो. अखरोट की उन्नत किस्म पूसा अखरोट, पूसा खोड़, गोबिंद, काश्मीर बडिड, यूरेका, प्लेसैन्टिया, विलसन, फ्रेन्क्वेट, प्रताप, सोलडिंग सलैक्शन व कोटखाई सलैक्शन का चयन करें. व्यावसायिक रूप से उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में मोटे छिलके की बजाय कागजी अखरोट की खेती को अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि मुनाफा डबल हो सके.
अखरोट की खेती के लिए किसानों को पौध तैयार करने की जरूरत होती है. मई और जून के महीनों में रोपाई से लगभग एक साल पहले नर्सरी में पौध तैयार की जाती है. नर्सरी में इसके पौधे तैयार करने के लिए ग्राफ्टिंग विधि का प्रयोग किया जाता है. ग्राफ्टिंग विधि से अखरोट के पौधे तैयार करने पर पौधों में मुख्य रूप से सभी गुण पाए जाते हैं. इसके अलावा बीज से तैयार पौधे 20 से 25 साल बाद उपज देते हैं. जबकि ग्राफ्टेड पौधे कुछ साल बाद ही उपज देने लगते हैं.
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ग्राफ्टिंग विधि को आम भाषा में कलम बांधना भी कहते हैं. इस विधि का इस्तेमाल एक नया पौधा विकसित करने के लिए किया जाता है. यह दो पौधों को जोड़ने की प्रक्रिया है जो मूल पौधे से अधिक उत्पादन करता है. ग्राफ्टिंग विधि से तैयार पौधे की खास बात यह है कि इसमें दोनों पौधों के गुण और विशेषताएं होती हैं.
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