देश में उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा आलू उत्पादक (Potato Production) राज्य है. यहां कन्नौज, फर्रुखाबाद समेत कई जिलों में आलू की दोहरी फसल की जाती है. ऐसे में इस पायलट प्रोजेक्ट का सबसे अधिक फायदा उत्तर प्रदेश के आलू बुवाई करने वाले किसानों को मिलने वाला है. दरअसल, केंद्र सरकार ने बतौर पायलट प्रोजेक्ट सब्जियों और फलों को समुद्र के रास्ते दूसरे देशों को निर्यात करने की योजना बनाई है. इन सब्जियों में आलू भी शामिल है और उत्तर प्रदेश में बड़े क्षेत्र में आलू का उत्पादन होता है. आमतौर पर उत्तर प्रदेश के लगभग सभी जिलों में थोड़ी बहुत आलू की खेती की जाती है, लेकिन व्यवसाय की दृष्टि से कन्नौज, फर्रुखाबाद, आगरा, फिरोजाबाद, मथुरा, अलीगढ़, मेरठ, बुलंदशहर, बरेली, लखनऊ और बाराबंकी प्रदेश के प्रमुख उत्पादक जिले हैं. उत्तर प्रदेश में प्रति हेक्टेयर 25.48 मिट्रिक टन आलू की पैदावार होती है.
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय आलू अनुसंधान केंद्र शिमला (हिमाचल) में है. इसके सिर्फ दो रीजनल केंद्र मेरठ एवं पटना में हैं. लिहाजा इनके जरिये इस क्षेत्र में होने वाले शोध और नवाचार को लैब से लैंड तक पहुंचने में दिक्कत होती है और समय भी लगता है. बोआई के सीजन में उन्नतिशील प्रजातियों के बीज की किल्लत आम बात है. लिहाजा किसान जो आलू कोल्ड स्टोरेज में रखता है उसे ही हर साल बोना मजबूरी है. योगी सरकार किसानों की इस समस्या का प्रभावी और स्थाई हल निकलने जा रही है.
आगरा जिसके आसपास के मंडलों और उनमें शामिल जिलों में आलू की सर्वाधिक खेती होती है, वहां अंतरराष्ट्रीय आलू अनुसंधान संस्थान पेरू (लीमा) की शाखा खोलने की प्रकिया जारी है. इसमें होने वाले शोध एवं नवाचार से यहां के लाखों आलू उत्पादक किसानों को बड़ा फायदा होगा.
सीआईपी आगरा की स्थापना से उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे आलू-बेल्ट राज्यों के साथ-साथ दक्षिण एशिया के देशों को फायदा होगा. इन केंद्रों से किसानों को बेहतर क्वालिटी के आलू के बीज मिल सकेंगे. इससे आलू के अधिक उत्पादन होगा और फसल की सुधरी गुणवत्ता का लाभ भी किसानों को बढ़ी आय के रूप में मिलेगा.
केंद्र में आलू की अधिक उत्पादकता वाली और प्रसंस्करण योग्य किस्में विकसित होंगी. आलू के बीजों की कमी भी दूर होगी. किसानों को आलू की खेती के नए तरीके सीखने का मौका मिलेगा. आलू के उत्पादन के मामले में यूपी देश में नंबर एक है. हालांकि दूसरे नंबर पर आने वाला पश्चिमी बंगाल प्रति हेक्टेयर उत्पादन के मामले में आगे है.
गोरखपुर स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ सब्जी वैज्ञानिक डॉ. एसपी सिंह के अनुसार इन केंद्रों के जरिये किसान कम समय में अधिक तापमान सहने वाली और अधिक उपज वाली प्रजातियों के बारे में जागरूक होंगे. स्थानीय स्तर पर बोआई के सीजन में बीज की उपलब्धता होने पर वह बाजार की मांग के अनुसार प्रजातियों को लगाएंगे. इससे उनकी आय भी बढ़ेगी. उनको यह पता चलेगा कि मुख्य और अगैती फसल के लिए कौन सी प्रजातियां सबसे बेहतर हैं.
मसलन कुफरी नीलकंठ में शुगर की मात्रा कम होती है, पर बीज की उपलब्धता बड़ी समस्या है. ऐसे ही अधिक तापमान के प्रति सहनशील कुफरी शौर्या, मात्र 60 से 65 दिन में होने वाली प्रजाति कुफरी ख्याति और प्रसंस्करण के लिए उपयोगी कुफरी चिपसोना प्रजातियों के साथ भी उपलब्धता का संकट है. शोध संस्थान इस दिक्कत को दूर करने में मददगार होंगे.
हालांकि किसी फसल के उत्पादन में वहां की कृषि जलवायु, मिट्टी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, पर बेहतर प्रजातियों की उपलब्धता और आधुनिक तकनीक को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते. इन्हीं के जरिये यूरोप के कई देश मसलन नीदरलैंड, बेल्जियम, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड आदि प्रति हेक्टेयर 38 से लेकर 44 मीट्रिक टन आलू पैदा कर रहे हैं. नए शोधकेंद्रों की नई प्रजातियों और नई तकनीक के जरिये अब भी उपज के बढ़ाने की भरपूर संभावना है. सर्वाधिक आबादी वाला प्रदेश होने के नाते अपनी जरूरत के अनुसार निर्यात की संभावनाओं के लिए भी यह जरूरी है, सरकार यह काम कर रही है.
पोषण के लिहाज से भी आलू महत्वपूर्ण है. इसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन सी, बी 6, पोटेशियम, मैग्नीशियम, फाइबर मिलते हैं, ये सभी शरीर के लिए आवश्यक हैं. मसलन कार्बोहाइड्रेट ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत होता है.
विटामिन सी का एक अच्छा स्रोत होने के कारण यह रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता को बढ़ाता है. पोटेशियम रक्तचाप को नियंत्रित करने में मदद करता है. मैग्नीशियम, हड्डियों और मांसपेशियों के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है. फाइबर इसे सुपाच्य बनाता है. इसी तरह आलू में फास्फोरस, आयरन, जिंक, मैंगनीज, कैल्शियम और अन्य खनिज भी पाए जाते हैं. ये सभी शरीर के लिए उपयोगी हैं.
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