मक्का की भारी खपत और इथेनॉल बनाने में इसके बढ़ते इस्तेमाल को देखते हुए इसमें पाए जाने वाले खतरनाक रसायन एफ्लाटॉक्सिन को तय मात्रा में नियंत्रित करने का तरीका कृषि वैज्ञानिकों ने खोज लिया है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के मक्का अनुसंधन संस्थान (ICAR-IIMR) ने कहा है कि टेक्नोलॉजी और पोस्ट हार्वेस्टिंग विधियों के जरिए एफ्लाटॉक्सिन के स्तर को घटाकर तय मानक 20PPM तक लाया जा सकता है. हालांकि, संस्थान ने इसके लिए तकनीक आदि पर होने वाले खर्च के लिए फंड की जरूरत बताई है.
इथेनॉल बनाने के लिए मक्का समेत अन्य सूखे अनाज (DDGS) का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें से मक्का का सर्वाधिक इस्तेमाल है. जबकि, मक्का को पशुओं के चारे-दाने के रूप में भी खूब इस्तेमाल किया जा रहा है. मक्का के बढ़ते इस्तेमाल को देखते हुए इसमें नमी से फंगस के जरिए पनपने वाले खतरनाक रसायन एफ्लाटॉक्सिन को नियंत्रित करने पर जोर दिया जा रहा है. इस खतरनाक रसायन से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं. इसके लिए लुधियाना के मक्का रिसर्च संस्थान ने कदम बढ़ा दिए हैं. संस्थान इथेनॉल बनाने के लिए डिस्टलरीज की मदद भी करता है.
लुधियाना स्थित भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान के अनुसार इथेनॉल बनाने के लिए मक्का समेत अन्य सूखे अनाज (DDGS) में एफ्लाटॉक्सिन के स्तर को कम करना संभव है, अगर इसे होस्ट प्लांट रेजिस्टेंस और सोर्स पर एग्रीकल्चर मैनेजमेंट का इस्तेमाल करके नियंत्रित किया जाए. इसके अलावा ट्रांसपोर्टेशन और स्टोरेज के दौरान सही प्रबंधन से इस खतरनाक रसायन के स्तर को काफी कम किया जा सकता है.
बिजनेसलाइन की रिपोर्पट के अनुसार शुपालन विभाग की ओर से चिंता जताने के बाद मक्का संस्थान की ओर से केंद्र को भेजी गई चिट्ठी में कहा गया है कि DDGS का इस्तेमाल पशुओं के भोजन के रूप में किया जाता है. लेकिन, इसमें पाया जाने वाला एफ्लाटॉक्सिन उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है. इथेनॉल और पशुओं का आहार बनाने वाली इंडस्ट्री के लिए एफ्लाटॉक्सिन के स्तर को कम करने के लिए मक्का रिसर्च संस्थान ने फ्रैक्शनेशन तकनीक को अपना सकती है. जबकि, प्रोटीन की मात्रा भी बढ़ाकर इसे कंट्रोल करने में मदद मिलेगी.
रिपोर्ट में वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक के हवाले से कहा गया है कि जब तक डिस्टिलरी इस मुद्दे को नहीं सुलझाती हैं तब तक के लिए मैंडेटरी गाइडलाइन की जरूरत है, जिसमें पशु आहार में अधिकतम 10 फीसदी तक DDGS को शामिल करने का प्रावधान हो. ताकि 20 पीपीएम से अधिक स्तर वाला DDGS पशुओं के लिए हानिकारक न हो और दूध सेवन के जरिए ह्यूमन बॉडी में न पहुंच सके.
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