सूरजमुखी महत्वपूर्ण तिलहन फसल है. यह हर प्रकार की मिट्टी और मौसम के अनुकूल होती है. इसका उत्पादन भी अधिक होता है और इसका तेल उत्तम होता है.सूरजमुखी की फसल कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में होती है. इनमें 80% से ज्यादा उत्पादन होता है. बसन्त एवं रबी के मौसम में पंजाब, हरियाणा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, ओडीशा और छत्तीसगढ जैसे गैर-पारंपरिक क्षेत्रों में इसका उत्पादन अधिक होता है. खरीफ के मौसम में लगभग 33% क्षेत्र में सूरजमुखी की फसल होती है और शेष रबी, ग्रीष्म तथा बसन्त ऋतु में होती है. उत्पादन की अच्छी तकनीकियों को अपनाने से देश में 1500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी अधिक की उत्पादन क्षमता बढने की संभावना है.
इसकी खेती से किसानों काफी अच्छा मुनाफा होता है. किसान अगर सही तरीके से इसकी बुवाई और जुताई करते हैं तो अच्छा उत्पादन मिलता हैं. ऐसे में जानिए इसकी खेती करने का आसान और सटीक तरीका.
सूरजमुखी की फसल के लिए अच्छी तरह से छनी हुई और उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता होती है. तराई वाली और किनारों वाली कम उपजाऊ मिट्टी सूरजमुखी की फसल के लिए उपयुक्त नहीं होती है. जूताई और बीज बोने की तैयारी बेहतर अंकुरण स्थिति (स्थायित्व) तथा विकास के लिए मिट्टी को अच्छी तरह तैयार करने की आवश्यकता है. हल्की मिट्टी में 1 या 2 बार जुताई और उसके बाद उसमें से पत्थर, ढेले आदि निकाल कर उसे समतल करना आवश्यक होता है.मध्यम व भारी मिट्टी में बारिश के तुरंत बाद या जब मिट्टी में नमी अनुकूल हो तब 1 या 2 बार उसमें हल या फावड़ा चलाना आवश्यक होता है.खेत को अच्छी तरह जोतने के बाद ही बीजों को बोना चाहिए.
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बुआई का समय इस तरह से निश्चित कर लेना चाहिए कि फूल लगने के समय लगातार बूंदाबादी, बादल छाए रहने या 38 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान रहने की स्थिति से बचा जा सके. जिन क्षेत्रों में परंपरागत रूप से इसकी खेती होती है, वहां खरीफ के दौरान यदि मिट्टी हल्की हो तो जून के दूसरे पखवाडे से जुलाई के मध्य तक तथा यदि मिट्टी भारी हो तो अगस्त के दूसरे पखवाडे में सूरजमुखी की बुवाई की जा सकती है.
रबी के दौरान सितंबर से नवंबर के अन्त तक सूरजमुखी की बुआई की जा सकती है.जहाँ इसकी पारंपरिक रूप से खेती नहीं होती है वहां इसकी बुआई बसन्त ऋतु में जनवरी से फरवरी के अन्त तक की जा सकती है.
बीजों में उत्पन्न होने वाली बीमारियों की रोकथाम के लिए बीजों में 3 ग्राम/किलों की मात्रा में थैरम या कप्टन मिलाना चाहिए. जिन क्षेत्रों में डौनि मिल्डिव रोग अधिक होता है वहां बीजों में 6 ग्राम/किलों की मात्रा में मेटलक्सिल मिला लेना चाहिए.अंकुरण के बाद उत्पन्न पौधों को एक जगह अधिक मात्रा में नहीं होना चाहिए. इससे उत्पादन में वृद्धि होती है, जुताई संबंधी अन्य कार्य आसान हो जाते हैं और कीटनाशक प्रबंधन और रोगों के रोकधाम में सहयोग मिलता है.
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