Garlic Farming: लहसुन एक कंदीय मसाला फसल है. भारत की लगभग हर रसोई में इसका इस्तेमाल जमकर किया जाता है. खाने से लेकर औषधि तक में लहसुन का इस्तेमाल किया जाता है. खाने का स्वाद बढ़ाना हो या फिर तड़का लगाना हो सभी में लहसुन का इस्तेमाल होता आया है. लहसुन के एक कंद में कई कलियां पाई जाती हैं जिन्हें अलग करके और छीलकर स्वाद, औषधीय और मसाला उद्देश्यों के लिए कच्चा और पकाया जाता है. इसका उपयोग गले और पेट संबंधी रोगों में किया जाता है. इसमें पाए जाने वाले सल्फर यौगिक इसके तीखे स्वाद और गंध के लिए जिम्मेदार हैं.
आपको बता दें लहसुन एक नकदी फसल है और इसमें कुछ अन्य प्रमुख पोषण तत्व भी हैं. इसका उपयोग अचार, चटनी, मसाले और सब्जियों में किया जाता है. लहसुन का उपयोग इसकी सुगंध और स्वाद के कारण लगभग सभी प्रकार की सब्जियों और विभिन्न मांस व्यंजनों में किया जाता है. इसका उपयोग हाइ बीपी, पेट की समस्या, पाचन समस्या, फेफड़े और गठिया रोगों के लिए किया जाता है. इसकी खासियत को देखते हुए ना सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी इसकी मांग बढ़ती जा रही है. जिस वजह से इसकी खेती भी बढ़ती जा रही है. लेकिन इसकी खेती (Garlic Farming) कर रहे किसानों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. उसमें से खरपतवार किसानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. आपको बता दें 8 खरपतवार लहसुन के सबसे बड़े दुश्मन हैं. कौन-कौन हैं वो आइए जानते हैं.
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लहसुन को उगने में 7-8 दिन लगते हैं, लेकिन लहसुन लगाने के बाद 3-4 दिन में ही खरपतवार उगने लगते हैं और ये लहसुन की तुलना में बहुत तेजी से बढ़ते हैं और पूरे खेत को घेर लेते हैं. लहसुन की फसल (Garlic Farming) में बार-बार सिंचाई और उर्वरकों का प्रयोग भी खरपतवार को तेजी से बढ़ने में मदद करता है. खरपतवार पानी, मिट्टी के पोषक तत्वों, प्रकाश और स्थान के लिए फसलों से प्रतिस्पर्धा करते हैं. लहसुन की फसल अधिकांश अन्य फसलों की तुलना में खरपतवारों के प्रति अधिक संवेदनशील होती है, जिसका मुख्य कारण इसकी धीमी वृद्धि और शुरुआती विकास चरण में छोटी संरचना, शाखा रहित, कम पत्तियां और उथली जड़ प्रणाली जैसी विशेषताएं हैं.
लहसुन के खेतों में पाए जाने वाले सामान्य खरपतवार हैं मोथा (साइप्रस रोटंडस), कांग्रेस घास (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस), कंटाचलाई (अमारैंथस स्पिनोसस), जंगल चालाई (अमारैंथस विरिडी), बथुआ (चिनोपोडियम एल्बम), पर्सलेन (पोर्टुला ओलेरासिया), साबुनी (ट्रायन्थेमा पोर्टुला कैस्ट्रम), जंगली पॉइन्सेटिया (यूफोर्बिया जेनिकुलटा), मैक्रा (डैक्टाइलोक्टेनियम एजिपटियम), हॉगवाइन (मायरेमिया अम्बेलेट), फॉक्सटेल घास (सेंचस सिलियारिस), सिग्नल घास (ब्राचिरिया उपप्रजाति), खल-मुरिया (ट्राइडेक्सप्रो कंबेन्स) आदि.
बाजार में अधिक मांग की वजह से कंद उपज के लिए, प्रारंभिक विकास चरण में ही खरपतवारों को नियंत्रित करना आवश्यक है. मजदूरों की कमी के कारण खरपतवारों पर रासायनिक नियंत्रण के साथ-साथ पारंपरिक विधियों का प्रयोग भी आवश्यक हो जाता है. प्रभावी खरपतवार नियंत्रण के लिए, रोपाई से पहले या रोपाई के समय ऑक्सीफ्लोरफेन 23.5 प्रतिशत ईसी / 1.5-2.0 मिली/लीटर का प्रयोग करें. या पेंडीमेथालिन 30 प्रतिशत ईसी/3.5-4.0 मिली/लीटर. रोपाई के 40-60 दिनों के बाद एक बार हाथ से निराई-गुड़ाई करने की सलाह दी जाती है.
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