गन्ना-मक्का की सहफसली खेतीउत्तर प्रदेश और भारत के कई हिस्सों में गन्ना एक प्रमुख व्यावसायिक फसल है, लेकिन इसकी एकल खेती (Monoculture) किसानों के लिए कई चुनौतियां पैदा करती है. गन्ने की शुरुआती बढ़वार बहुत धीमी होती है और किसानों को अपनी फसल का पैसा मिलने में 10 से 15 महीने का लंबा समय लग जाता है, जिससे उनके दैनिक खर्चों को चलाना मुश्किल हो जाता है. इसके अलावा, केवल गन्ना उगाने से कीटों और बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है और पानी की भी अधिक खपत होती है. इन समस्याओं का एक शानदार समाधान "गन्ना और मक्का की सह-फसली खेती" के रूप में सामने आया है. यह तकनीक न केवल जमीन और पानी का सही उपयोग करती है, बल्कि किसानों को अतिरिक्त आय भी सुनिश्चित करती है.
मक्का इस प्रणाली के लिए सबसे उपयुक्त फसल है क्योंकि यह कम अवधि (90-120 दिन) में तैयार हो जाती है. गन्ने के शुरुआती 3-4 महीनों में जब गन्ने की वृद्धि धीमी होती है, मक्का उस खाली स्थान और संसाधनों का उपयोग कर लेती है. उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के किसानों के लिए, "वसंतकालीन गन्ना" की बुवाई का सबसे सही समय मध्य फरवरी से मध्य मार्च तक है.
इसी समय वसंतकालीन मक्का की बुवाई भी की जा सकती है, जो गन्ने के साथ पूरी तरह मेल खाती है. बुवाई के लिए "पैयर्ड रो" विधि यानी गन्ने की दो लाइनों के बीच 150 सेमी की दूरी रखकर, उस खाली जगह में मक्का की दो लाइनें लगाना सबसे अच्छा माना जाता है.
मक्का और गन्ना की इस सह-फसली खेती में संसाधनों का प्रबंधन बहुत महत्वपूर्ण है. गन्ने के लिए अनुशंसित फास्फोरस और पोटाश की पूरी खुराक बुवाई के समय ही डाल देनी चाहिए. मक्का के लिए, नाइट्रोजन को दो बराबर भागों में बांटकर "घुटने की ऊंचाई" और "टेसलिंग" अवस्था में जड़ों के पास डालना चाहिए. सिंचाई के लिए नाली विधि (Ridge and furrow) आदर्श है, लेकिन ड्रिप सिंचाई से पैदावार और भी बेहतर हो सकती है.
खरपतवार नियंत्रण के लिए, "एट्राजीन" जैसे अनुशंसित शाकनाशी का प्रयोग किया जा सकता है, जो समय पर छिड़काव करने से मक्का में होने वाले 25-80% तक के नुकसान को बचा सकता है.
किसानों के लिए सबसे बड़ी खुशखबरी यह है कि सोलापुर, महाराष्ट्र में किए गए मैदानी प्रदर्शनों में यह साबित हुआ है कि अकेले गन्ने की तुलना में "गन्ना+मक्का" की खेती से शुद्ध लाभ लगभग 1,25,000 रुपये प्रति हेक्टेयर अधिक मिला है. इस प्रणाली से कुल मुनाफा 5,75,000 रुपये प्रति हेक्टेयर तक दर्ज किया गया. मक्का की पैदावार 4 से 8 टन प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की गई, जिससे गन्ने की खेती की पूरी लागत मक्का की आय से ही निकल गई. इसका मतलब है कि गन्ना किसानों के लिए "बोनस" बन जाता है. इस सफल मॉडल का विस्तार अब वसंत 2025 के दौरान पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में किया जा रहा है.
यह तकनीक केवल आज के मुनाफे के लिए नहीं, बल्कि भविष्य की सुरक्षा के लिए भी है. भारत सरकार बायो-इथेनॉल उत्पादन पर बहुत जोर दे रही है. कई चीनी मिलें अब "डुअल-फीड डिस्टिलरी" लगा रही हैं, जहां गन्ने के शीरे के अलावा मक्का का उपयोग भी इथेनॉल बनाने में होता है. लेकिन मिलों के पास पर्याप्त मक्का उपलब्ध नहीं है. यदि उत्तर प्रदेश के किसान इस मॉडल को अपनाते हैं, तो उनके पास मक्का बेचने का एक पक्का बाजार होगा. यह प्रणाली 15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैलने की क्षमता रखती है, जिससे 60 लाख टन से अधिक मक्का का उत्पादन हो सकता है और देश की ऊर्जा सुरक्षा मजबूत होगी.
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