बीकानेरी मगरा भेड़ की ऊन से बनते हैं शानदार कालीन, जानें क्या हैं व‍िशेषताएं

बीकानेरी मगरा भेड़ की ऊन से बनते हैं शानदार कालीन, जानें क्या हैं व‍िशेषताएं

मगरा नस्ल की इन भेड़ों की ऊन खास चमकदार होती है. स्थानीय भाषा में मगरा भेड़ को बीकानेरी चोखला भी कहते हैं. कालीन (कार्पेट) को मजबूती देने के लिए इस ऊन का उपयोग किया जाता है.

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बीकानेरी मगरा भेड़ की ऊन से बनते हैं शानदार कालीन, जानें क्या हैं व‍िशेषताएं चोखला भेड़ों का झुंड

आपने अपने घर की शोभा बढ़ाने के लिए कभी-ना-कभी कालीन खरीदे ही होंगे. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन मखमली कालीनों में राजस्थान के बीकानेर की भेड़ों की ऊन भी इस्तेमाल की जाती है. मगरा नस्ल की इन भेड़ों की ऊन खास चमकदार होती है. स्थानीय भाषा में मगरा भेड़ को बीकानेरी चोखला भी कहते हैं. कालीन (कार्पेट) को मजबूती देने के लिए इस ऊन का उपयोग किया जाता है. हालांकि व्यापारी कई देशों से भी ऊन का धागा मंगाते हैं, लेकिन उस ऊन से बने कार्पेट में चमक लाने के लिए चोखला भेड़ की ऊन भी इस्तेमाल की जाती है. 

विदेशों में है डिमांड

चोखला नस्ल की भेड़ की ऊन चांदी की तरह चमकदार और मजबूत होती है. इसीलिए इसकी ऊन की विदेशों में भी काफी डिमांड में रहती है. केन्द्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, बीकानेर में सीनियर साइंटिस्ट आशीष चोपड़ा से किसान तक ने इस संबंध में बात की. 
वे बताते हैं क‍ि बीकानेर और इसके आसपास की इलाकों में ही चोखला भेड़ की ऊन अच्छी क्वालिटी की होती है. इसमें इस क्षेत्र की जलवायु  और घास का काफी योगदान है. इस भेड़ की ऊन में क्रियेटिन ज्यादा मात्रा में पाया जाता है. 
चोखला की ऊन चमकदार होने के कारण बताते हुए चोपड़ा कहते हैं कि कुछ शोधों में यह सामने आया है कि बीकानेर की जलवायु और यहां पैदा होने वाली घास की वजह से इसकी ऊन चमकदार और मजबूत होती है. यही कारण है कि व्यवसायी कालीन बनाने में इस ऊन का भी इस्तेमाल करते हैं. चोपड़ा बताते हैं क‍ि इस भेड़ के बालों में क्रियेटिन जीन ज्यादा होता है. साथ ही इसका रेसा भी करीब 35 माइक्रोन का होता है. ऊन का कुछ हिस्सा ठोस होता है और कुछ हिस्सा खाली रहताहै. कारपेट बनाने के लिए 30-40 प्रतिशत मोड्यूलेशन उपयोगी होता है.”

साल में दो किलो ऊन देती है चोखला भेड़

बीकानेरी चोखला भेड़ एक साल में 2 से तीन किलो ऊन देती है. इस तरह औसतन भेड़ दो से ढाई किलो तक ऊन देती है. ऊन के लिए साल में तीन बार ऊन उतारी जाती है. इसमें पहली मार्च में काटी जाती है. यह भाव के हिसाब से सबसे महंगी होती है. कीमत 250 से 300 रुपए किलो तक होती है. क्योंकि इस ऊन में सफेदी ज्यादा होती है और पीलापन नहीं होता. साथ ही कांटा भी नहीं होता. 
वहीं, दूसरी कटाई जुलाई –अगस्त के महीने में की जाती है. बारिश के कारण इसमें हल्का पीलापन होता है. इसका बाजार भाव सौ-सवा सौ रुपए तक होता है. तीसरी कटाई सर्दी के मौसम में नवंबर में होती है. यह भाव के लिहाज से काफी सस्ती होती है. बाजार भाव 55-60 रुपए प्रति किलो तक ही होता है. 

नौ नस्लें हैं राजस्थान में भेड़ों की

राजस्थान में भेड़ की नौ बड़ी नस्लें हैं. इनमें मगरा, मारवाड़ी, जैसलमेरी, मालपुरा, सोनाड़ी, पाटनबाड़ी, पूगल और चोखला है. ये नस्लें पूरे राजस्थान में पाई जाती हैं. 
 

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