उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों में आवारा पशुओं की समस्या गंभीर होती जा रही है. राष्ट्रीय गोकुल मिशन की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर भारत के कई राज्यों में प्रति गाँव औसतन 15 से अधिक आवारा मवेशी देखे जाते हैं.खेतों में घुसकर फसलों को बर्बाद करने वाले और दूध न दे पाने की स्थिति में मालिकों द्वारा छोड़े जाने वाले ये गोवंशीय पशु किसानों के लिए बड़ी परेशानी का सबब बन गए हैं. आवारा पशुओं से पैदा हो रही समस्याओं के समाधान के लिए अधिक समग्र और सही दृष्टिकोण की जरूरत है. इसमे पशु आश्रय स्थल न सिर्फ आवारा पशुओं को आश्रय देंगे, बल्कि कई उद्देश्यों को भी पूरा कर सकते हैं. इससे किसानों की फसलों की सुरक्षा और फसल उत्पादकता बढ़ेगी, साथ ही पर्यावरणीय स्थिरता को भी बढ़ावा मिलेगा. इसलिए पशु आश्रय स्थल या गौशाला निश्चित रूप से इस जटिल समस्या का स्थायी समाधान हो सकता है.
मौजूदा योजनाओं की कमियों को ध्यान में रखते हुए संबंधित गांव में ही पशु आश्रय स्थल बनाना दीर्घकालिक और स्थायी समाधान हो सकता है. इससे न केवल आवारा पशुओं को आश्रय मिलेगा बल्कि उनके अपशिष्ट का भी उपयोग हो सकेगा, जिससे कई दूसरे लाभ मिल सकते हैं. अगर गौशालाओं यानी कैटल हॉस्टल में कुछ विशेष काम किया जाए तो यह बहुत फायदेमंद हो सकता है.
पशु आश्रय स्थल यह मॉडल ग्राम पंचायत भूमि पर विकसित किया जा सकता है, जहां बेसहारा मवेशियों को नियंत्रित वातावरण में रखा जा सकता है. इसके साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि पशुओं को अच्छा खाना मिले उनकी उचित देखभाल की जा सके, उनकी स्वास्थ्य समस्याओं का उपचार हो और उन्हें हानिकारक परिस्थितियों से बचाया जाए. इन आवारा पशुओं को पशु आश्रय स्थलों में रखने से वे कृषि क्षेत्रों से दूर रहेंगे, जिससे फसलों को होने वाले नुकसान और मानव सुरक्षा के लिए खतरों में कमी आएगी.उचित देखभाल और प्रजनन समस्याओं पर ध्यान देने से इनमें से अधिकांश गायें गर्भवती हो जाएंगी, जिससे उनकी उपयोगिता फिर से बढ़ जाएगी. पशु आश्रय स्थलों को ऐसे इच्छुक पशुपालकों को भी अवसर प्रदान करना चाहिए जो दुधारू पशु पालना चाहते हैं लेकिन जगह की कमी या व्यस्तता के कारण ऐसा करने में असमर्थ हैं, उन्हें सेवा के लिए भुगतान के आधार पर ऐसा करने का अवसर प्रदान करना चाहिए.
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पशु आश्रय स्थलों से मवेशियों के गोबर का उपयोग बायोगैस बनाने के लिए किया जा सकता है, इस प्रक्रिया में, बिना ऑक्सीजन के सूक्ष्मजीवों द्वारा कार्बनिक पदार्थों को तोड़ा जाता है, जिससे मीथेन गैस बनती है, जिसका उपयोग खाना पकाने, गर्म करने या यहाँ तक कि बिजली उत्पादन के लिए भी किया जा सकता है. बायोगैस लकड़ी और मिट्टी के तेल जैसे पारंपरिक ईंधन का एक पर्यावरण की दृष्टि से स्वच्छ विकल्प है. अक्षय ऊर्जा मंत्रालय, 2021 के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 30 मिलियन टन गोबर उत्पन्न होता है, जिसे बायोगैस उत्पादन में परिवर्तित करके 30,000 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है. इससे न केवल ऊर्जा संकट का समाधान होगा बल्कि किसानों को एक बेहतर ऊर्जा स्रोत भी मिलेगा.
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बायोगैस उत्पादन के बाद जो अपशिष्ट बचता है उसे स्लरी कहते हैं, जो पोषक तत्वों से भरपूर होता है. इस स्लरी का इस्तेमाल जैविक खाद के रूप में किया जा सकता है, जिसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम जैसे ज़रूरी तत्व होते हैं. खाद के रूप में स्लरी का इस्तेमाल करने से मिट्टी की सेहत में सुधार होता है और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा मिलता है. रासायनिक खादों पर निर्भरता कम करके किसान अपनी पैदावार बढ़ा सकते हैं.
गाय के गोबर से वर्मी कम्पोस्ट बनाने के जरिए गोबर को जैविक खाद में बदलकर खेतों की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, 2021 के अनुसार एक टन गाय के गोबर से 0.8 से 1 टन वर्मी कम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है. वर्मी कम्पोस्ट बनाने के कई फायदे वर्मी कम्पोस्ट को उच्च पोषक तत्व वाला उर्वरक माना जाता है जो मिट्टी की उर्वरता बढ़ा सकता है. रासायनिक खादों के जैविक विकल्प के रूप में वर्मी कम्पोस्ट मिट्टी को उपजाऊ बनाने, पर्यावरण प्रदूषण को कम करने और कृषि उत्पादकता बढ़ाने का एक प्राकृतिक तरीका है. वर्मी कम्पोस्ट एक बेहतर विकल्प है.
कैटल हॉस्टल मॉडल ग्रामीण भारत में न केवल आवारा पशुओं से फसलों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा बल्कि स्थानीय युवाओं, महिलाओं और बेरोज़गारों के लिए रोज़गार के अवसर भी पैदा करेगा. इसके अतिरिक्त,बायोगैस उत्पादन से ऊर्जा आत्मनिर्भरता बढ़ेगी, और वर्मीकम्पोस्ट तथा स्लरी मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होगा. इस प्रकार, कैटल हॉस्टल मात्र पशु आश्रय न होकर, एक व्यापक सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक परिवर्तन का केंद्र बन सकता है
लेखक: डॉ. रणवीर सिंह
ग्रामीण विकास संबधित परियोजनाओं और नीति निर्धारण प्रबंधन मे 4 दशक का अनुभव
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