भेड़ पालन में ऊन कारोबार कमजोर पड़ने लगा है. जबकि कुछ वक्त पहले भेड़ पालन ऊन, मीट और दूध के लिए होता था. लेकिन अब दूध से ज्याहदा मीट के लिए भेड़ें पाली जा रही हैं. भारतीय भेड़ों से मिलने वाली ऊन का कारोबार मंदा होने के पीछे ऊन का आयात बताया जा रहा है. लेकिन ऐसा नहीं है कि इसके चलते भेड़ पालन में कोई कमी आई है. कश्मीर समेत दक्षिण भारत के कई राज्यों में भेड़ के मीट की बहुत डिमांड है. कई राज्य तो मीट से संबंधित अपनी ही डिमांड पूरी नहीं कर पाते हैं.
मीट के लिए उन्हें हेल्दी भेड़ चाहिए होती हैं. बाजार की इसी जरूरत को पूरा करने के लिए केन्द्रीय भेड़ एंव ऊन अनुसंधान संस्थांन, टोंक, राजस्थान ने एक योजना शुरू की है. योजना के तहत जहां भी भेड़ होगी वहां जाकर उसका टीकाकरण किया जाएगा. इस योजना में घुमंतू पशुपालकों को भी शामिल किया गया है.
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संस्थान के डायरेक्टरर डॉ. अरुण कुमार तोमर ने किसान तक को बताया कि भेड़ों को फड़कियां(एन्टेरोटॉक्सीमिअ), निमोनिया, चेचक, प्लेग, खुरपका-मुँहपका, बाह्य परजीवी और अन्तःपरजीवी आदि बीमारियों से बचाने के लिए अलग-अलग टीके लगाए जाते हैं. सभी पशु स्वास्य्पर केन्द्रों पर ये टीके मुफ्त में लगाए जाते हैं. इसके साथ ही खेत और चारागाहों में जाकर भी भेड़ों का टीकाकरण किया जाता है. इस टीकाकरण अभियान में कोई भेड़ छूट ना जाए इसके लिए एक नई योजना शुरू की गई है. योजना में घुमंतू पशुपालकों को शामिल किया गया है. घुमंतू पशुपालकों की भेड़ों को टीका लगाने के लिए टीम उन जगहों पर जाती है जहां घुमंतू पशुपालकों ने डेरा डाला हुआ होता है.
सफेद लिबास पर लाल रंग की पगड़ी और भेड़ों को एक दिशा में हांकने के लिए लम्बा सा डंडा. ये पहचान है उस चरवाहे की जो देवासी समुदाय से आता है. इन्हें घुमंतू और खानाबदोश पशुपालक भी कहा जाता है. साल के आठ से नौ महीने ये लोग अपना घर-गांव छोड़कर दूसरे राज्यों में भेड़ चराने निकल जाते हैं. इस दौरान खेत और सड़क से ही इनका कारोबार चलता रहता है. किमी के हिसाब से घर-परिवार के लोगों की डयूटी लगती है. भेड़ और ऊन के खरीदार मोबाइल से इनकी लोकेशन लेकर माल खरीदने पहुंच जाते हैं.
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जिसके पास जितनी ज्यादा भेड़ होती हैं समाज में उसकी उतनी ही मान-प्रतिष्ठा होती है. भेड़ों के रेवड़ लेकर एक शहर से दूसरे शहर घूमने वाले इन चरवाहों की एक महीने की कमाई लाखों में होती है. भेड़ के दूध, ऊन से और बड़ी भेड़ें बेचकर ये कारोबार करते हैं. सर्दी-बरसात में ये भेड़ों को लेकर घूमते रहते हैं, लेकिन सदी की दस्तक के साथ ही ये अपने घरों की ओर लौटना शुरू कर देते हैं. डायरेक्टर अरुण तोमर का कहना है कि इन चरवाहों के पास खेरी नस्ल की भेड़ होती हैं. ये ऊन के लिए कम और मीट के लिए ज्यादा पसंद की जाती हैं. दिनभर चलने की वजह से भेड़ों का वजन ज्यादा नहीं बढ़ता है, इसलिए भेड़ के दाम भी कम ही मिलते हैं.
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