मॉनसून सीजन यानी बरसात के मौसम में पशु पालकों के सामने कई तरह की मुश्किलें आती हैं, जिसमें सबसे बड़ी मुश्किल बरसात के समय मवेशियों को होने वाली बीमारियां हैं. बरसात के सीजन में लगने वाली ये बीमारियां कई बार इलाज का वक्त भी नहीं देतीं हैं और पशु असमय काल के गाल में समा जाते हैं. हालांकि डेयरी पशुओ को लगने वाली कुछ बीमारियां ऐसी भी होती हैं, जिनका उपचार तो संभव है,लेकिन इलाज के दरम्यान दुधारु पशुओं के दूध उत्पादन में भारी गिरावट होती है, इन सबसे पशु पालकों को आर्थिक नुक़सान होता है,लेकिन इनसे बचने का उपाय और अलग-अलग बीमारियों का वैक्सीनेशन है,जिससे आपके मवेशी ऐसी बीमारियों की चपेट आएंगे ही नहीं.हालांकि इस बात को लेकर पशुपालकों में कोई भ्रम भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि टीकाकरण से पशुओं बचाया जा सकता हैं. दरअसल टीकाकरण से पशुओं में उस बीमारी से लड़ने की बीमारी प्रधिरोधक क्षमता बढ़ती है.जिससे पशु जल्दी बीमार नहीं पड़ते है. आइए जानते है कि बरसात में फैलने रोग बीमारियों से डेयरी पशुओ कैसे सुरक्षित रखा जा सकता है.
कृषि विज्ञान केन्द्र गौतमबुद्ध नगर के पशुओं के विषय विशेषज्ञ के डॉ कुवर घनश्याम के अनुसार पशुओं में गंभीर बीमारी गलाघोंटू है, जो ज्यादातर बारिश में होती है. ये बीमारी अधिकतर बरसात के मौसम में गाय और भैंसों में फैलती है. इस बीमारी में पशुओं को संभलने तक का मौक़ा नहीं मिलता है, जिससे गला घुटने के कारण पशुओं मर जाते है, जैसा नाम से ही पता चलता है कि गलाघोंटू नाम की इस बीमारी में पशु को तेज बुखार आ जाता है, गले में सूजन और सांस लेते समय घर्र-घर्र की आवाज आती है. इस बीमारी के कारण गले के पास सूजन शरीर का तापमान 106 -107 फारेनहाइट हो जाता है और गला चॉक कर जाता है.
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गलाघोंटू बीमारी का कोई उपचार नहीं है बल्कि टीकाकरण ही रास्ता है. इसलिए गलाघोंटू का टीका लगवा लेना चाहिए. इस बीमारी की रोकथाम के लिए पहला टीका 6 माह की आयु में और उसके बाद हर साल टीका लगवाना चाहिए. पशुओं में गलगोटू बीमारी वैक्टिरिया से फैलती है. इसके बचाव के लिए साल में टीकाकरण करवाना चाहिए.
किसान तक से बातचीत में डॉ कुवर घनश्याम ने कहा कि खुरपका-मुंहपका पशुओं की एक गंभीर बीमारी हैं, इस बीमारी में पशुओं के खुर पक जाते हैं, जीभ में छाले पड़ जाते हैं और मुंह पक जाता है. पशु कुछ खा नहीं पाता है. मसलन, बुखार और कमजोरी से धीरे-धीरे पशु मरना सन्न हो जाता है. इसमें इलाज तो संभव है,लेकिन पशुओं का दूध और उनके काम करने की क्षमता बहुत कम हो जाती है. इसलिए वैक्सीनेशन से आप उनका बचाव कर सकते हैं.ये बीमारी पशुओं का सबसे ज्यादा संक्रामक और घातक बीमारी है. बीमारी किसी भी उम्र की गाय और उसके बच्चों में हो सकती है. ये किसी भी मौसम में हो सकती है. इसलिए बीमारी होने से पहले ही उसके टीके लगवा लेना फायदेमंद रहता है. अगर दूधारू पशु यह बीमारी के लक्षण दिखाई देंं, तो सबसे पहले इसको दूसरे पशुओ से अलग कर दें .इसके बाद पशु को जीवाणुनाशक घोल से ज़ख्म धोएं, दिन में दो से तीन बार जीवाणु नाशक घोल से मुहं और खूर को धोना चाहिए और पशु को नरम घास-चारा खाने को दे.
पशु विशेषज्ञ डॉ कुवर घनश्याम के अनुसार बरसात के सीजन में सड़ा-गला चारा और दाना खाने और गीला हरा चारा खाने से मवेशियों के पेट में दूषित गैस बन जाती है, जिसे अपरा रोग कहते है. इसमें पशु की बॉई कोख को फूल जाती है. इस पर हाथ मारने पर ड्रम जैसी आवाज आती है. बरसात में पशुओं को चराने ले जाने से पहले थोड़ा सूखा चारा जरूर देना चाहिए. गीला चारा नहीं खिलाना चाहिए,पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार टिम्पोल ब्लाटिनाक्स या अफिनाल आदि दवाओं का प्रयोग करेंं. ऐसी अवस्था में पशु 50 ग्राम काला नमक 10 ग्राम हींग में मिलाकर देने से पशुओं को राहत मिलती है.
पशु विशेषज्ञ डॉ कुवर घनश्याम के अनुसार लीवर फ्लूक-रोग पशुओं में परजीवी से होता है.परजीवी के लार्वा नदी पोखर तालाब के किनारे लगे घास के पतियों पर रहते हैं. जब पशु इन चारों को खाते है तो पशु के शरीर में ये परजीवी प्रवेश कर जाते हैं एवं अपना स्थान यकृत तथा शरीर अन्य भागों में बना लेते हैं. इससे पशुओं की भूख लगनी बंद हो जाती है और कमजोर हो जाते हैंं. कभी-कभी दूध उत्पादन में कमी हो जाती है और पतली दस्त होने लगती है. समय पर इलाज न होने की पशु की मृत्यु भी सकती है. पशुपालकों को सड़ा गला चारा नहीं खिलाना चाहिए एवं चारे की नांद की प्रत्येक दिन सफाई करना चाहिए. पशु चिकित्सक के परामर्श से कृमि नाशक दवाओं दवा को देना चाहिए. कम से कम साल में दो बार कृमि नाशक का दवा को पशु को देना चाहिए. बाढ़ प्रभावित जल जमाव वाले एरिया के पशुपालक को इस रोग से सतर्क रहने जरूरत रहती है.
इनके अलावा कुछ बीमारियां कीड़ों से होती हैं, चाहे वो अंत: परजीवी हो यानी पेट के कीड़े, सूत्रकृमि वगैरह.या बाह्य परजीवी जैसे जू, कीलनी, चीचड़ी, इन सबसे पशु बेहद परेशान रहते हैं. इसलिए वैसे कृमि जिनके अंडे पेट में पलते हैं और आंतों से पशुओं का खून चूस कर उन्हें कमज़ोर कर देते हैं.उनसे बचाव के लिए 6 महीने में एक बार कीड़े की दवा ज़रूर खिलाएं, जिस प्रक्रिया को डीवर्मिंग कहा जाता है.
थनैला ये बीमारी जो सिर्फ दुधारू पशुओं को ही होती है. इससे बचने के लिए साफ सफाई तो जरूरी है क्योंकि बरसात के मौसम में ज्यादा गंदगी हो जाती है. इस बीमारी से बचाव के पशु से दूध निकालने के बाद उन्हें 15 से 20 मिनट तक दुधारू पशु को बैठने ना दिया जाए तो आप इस बीमारी से दुधारू पशुओं का बहुत हद तक बचाव कर लेंगे. इसके अलावा पशु से दूध निकालने के बाद पशु का थन साफ से धोना चाहिए. इस तरह कई बीमारियों के अलग-अलग टीके समय पर लगवा कर पशुपालक अपने पशुओं को जहां कई गंभीर बीमारियों से बचा सकते हैं. वहीं खुद को होने वाले आर्थिक नुक़सान से बचा सकते हैं.
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