Success Story: भारत ने कृषि क्षेत्र में कैसे लिखी तरक्की की इबारत? 

Success Story: भारत ने कृषि क्षेत्र में कैसे लिखी तरक्की की इबारत? 

कभी अनाज के ल‍िए दूसरे देशों का मोहताज भारत आज खाद्यान्न न‍िर्यातक है तो इसके पीछे क‍िसानों की मेहनत, वैज्ञान‍िकों की खोज और सरकारी पहल का योगदान सबसे ज्यादा है. भारत की सफलता की कहानी कृषि विकास का उल्लेख किए बिना अधूरी लगती है. 1950 से अब तक कृष‍ि क्षेत्र में क‍ितनी तरक्की हुई पढ़‍िए इसकी पूरी र‍िपोर्ट. 

भारत में कृष‍ि क्षेत्र की तरक्की की कहानी. (Photo-Kisan Tak)
ओम प्रकाश
  • New Delhi ,
  • Jan 26, 2023,
  • Updated Jan 26, 2023, 7:23 AM IST

आजादी के समय भारत की आबादी करीब 33 करोड़ थी, फ‍िर भी हम अनाज के ल‍िए दूसरे देशों के मोहताज थे. आजादी से पहले और बाद में दोनों समय देश ने अकाल का सामना क‍िया. लेक‍िन, उसके बाद क‍िसानों, कृष‍ि वैज्ञान‍िकों की मेहनत और सरकार की पॉल‍िसी की वजह से आज हम खाद्यान्न के मामले में अलग पहचान बना चुके हैं. आज हम खाद्यान्न न‍िर्यातक हैं, जबक‍ि हमारी जनसंख्या 135 करोड़ हो गई है. अब कई गरीब देश अनाज के ल‍िए हमारी तरफ देख रहे हैं. आज भारत दुन‍िया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक है. दुन‍िया के कुल चावल एक्सपोर्ट में करीब 45 फीसदी ह‍िस्सा हमारा है. यही नहीं अपना देश कृषि उत्पादों का निर्यात करने वाले टॉप-10 देशों के क्लब में शाम‍िल हो चुका है. लेक‍िन, भारत के कृष‍ि क्षेत्र को यह कामयाबी आसानी से नहीं मिली है.

कृष‍ि क्षेत्र को आगे बढ़ाने में दो क्रांत‍ियों का उल्लेख सबसे जरूरी है. हर‍ित क्रांत‍ि और श्वेत क्रांत‍ि. दोनों इतनी कामयाब रही हैं क‍ि आज पूरी दुन‍िया भारत का लोहा मान रही है. यह कहना गलत नहीं होगा क‍ि आजादी के बाद भारत की सफलता की कहानी कृषि विकास का उल्लेख किए बिना अधूरी है. खेती ने कोव‍िड काल में भी अर्थव्यवस्था को बचाकर अपनी प्रासंग‍िकता साब‍ित की. इसके ल‍िए सबसे ज्यादा योगदान उन कृष‍ि वैज्ञान‍िकों का माना जाना चाह‍िए ज‍िन्होंने हर‍ित क्रांत‍ि के जर‍िए भारत को खाद्यान्न संपन्न राष्ट्र बनाया. लंबी क‍िस्मों के गेहूं और धान को बौना करके अनाज की उपज बढ़ाई और न‍िरंतर अध‍िक उत्पादन देने वाली क‍िस्मों के व‍िकास पर काम क‍िया. क‍िसानों की मेहनत का तो कहना ही क्या. 

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भारत में हरित क्रांति 

अनाज का उत्पादन बढ़ाने के मकसद से मैक्स‍िको के इंटरनेशनल मेज एंड वीट इंप्रूवमेंट सेंटर (CIMMYT) की मदद से भारत में हर‍ित क्रांत‍ि की शुरुआत की गई. स‍िमि‍ट के एग्रीकल्चर र‍िसर्चर डॉ. नॉर्मन बोरलॉग और भारतीय कृष‍ि व‍िज्ञानी डॉ. एमएस स्वामीनाथन की मदद से यह काम शुरू हुआ. भारत ने मैक्सिको के स‍िम‍िट से लर्मा रोहो (Lerma Rojo), सोनारा-64, सोनारा-64-A और कुछ अन्य ड्वार्फ (अर्ध-बौनी) क‍िस्मों के गेहूं के 18,000 टन बीज का इंपोर्ट क‍िया. इस काम में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का अहम योगदान था. 

भारतीय कृष‍ि अनुसंधान संस्थान, पूसा में जेन‍ेट‍िक्स एंड प्लांट ब्रिड‍िंग के प्रिंस‍िपल साइंट‍िस्ट डॉ. राजबीर यादव के मुताबिक द‍िल्ली स्थ‍ित पूसा इंस्टीट्यूट, पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना और पंत नगर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी ने द‍िल्ली, हर‍ियाणा और पंजाब के कई स्थानों पर मैक्स‍िको से आए बौने गेहूं की क‍िस्मों का ट्रॉयल क‍िया. फ‍िर तीनों संस्थानों ने 1966 के आसपास इन बौनी क‍िस्मों की मदद से 'कल्याण सोना' नाम से अपनी नई बौनी क‍िस्म व‍िकस‍ित कर ली. दूसरी क‍िस्म थी सोनाल‍िका. यह सॉर्ट ड्यूरेशन की क‍िस्में थीं ज‍िनकी लेट बुवाई भी की जा सकती थी. इन दोनों क‍िस्मों की वजह से भारत के गेहूं उत्पादन में उल्लेखनीय उछाल आया. उसके बाद भारत ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 

भारत में प्रत‍ि व्यक्त‍ि खाद्यान्न उपलब्धता.

चावल के क्षेत्र में कामयाबी 

गेहूं की तरह ही धान की भी कहानी है. फिलीपींस स्थित इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (इरी) में जर्म प्लाज्म एक्सचेंज के ग्लोबल कोर्डिनेटर रह चुके प्रो. रामचेत चौधरी का कहना है क‍ि भारत को बौने गेहूं की तरह बौनी क‍िस्म के धान की भी दरकार थी. क्योंक‍ि अपने यहां के धान की लंबाई 150 सेंटीमीटर तक होती थी. ज‍िससे धान ग‍िर जाता था. ऐसा होने से उत्पादन घट जाता था.  

भारत की इस जरूरत को पूरा करने के ल‍िए ताइवान आगे आया. उसने अपने यहां उगने वाली बौनी धान की प्रजाति ताइचुंग नेटिव-1 (TN1-Taichung Native-1) दी. इसने भारतीय कृषि क्षेत्र की काया पलट दी. ताइचुंग नेटिव-1 ने हरित क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ताइवान में विकसित टीएन-1 को दुनिया में चावल की पहली अर्ध-बौनी किस्म माना जाता है. धान की दूसरी बौनी किस्म 'आईआर-8' आई. ज‍िसे इरी ने भारत को 1968 में द‍िया. इसके जर‍िए तेजी से उत्पादन उत्पादन बढ़ने की शुरुआत हो गई. 

उसके बाद 1969 में ही हमारे वैज्ञानिकों ने इन प्रजातियों से क्रॉस ब्र‍िड‍िंग शुरू की. ओडिशा में चावल की एक किस्म थी टी-141, ज‍िसका ताइचुंग नेटिव-1 से क्रॉस ब्रिड‍िंग करके जया नाम का धान तैयार किया गया. इसका तना 150 सेंटीमीटर से घटकर 90 का हो गया. इस कोश‍िश से उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई. इसके बाद भारत ने चावल के क्षेत्र में भी मुड़कर नहीं देखा. 

खाद्य तेलों, चीनी, चाय और कॉफी की प्रत‍ि व्यक्त‍ि उपलब्धता.

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रासायनिक उर्वरकों का योगदान 

आजादी के बाद 1950-51 में अपने यहां प्रत‍ि हेक्टेयर स‍िर्फ 668 क‍िलो चावल पैदा होता था, जो 2020-21 में 2713 क‍िलोग्राम तक पहुंच गया है. 1951-1952 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था, जो साल 2021-22 में बढ़कर 315.72 मिलियन टन यानी 31.572 करोड़ टन पहुंच गया है. 
 
खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने में गेहूं, धान और दूसरी फसलों की अच्छी क‍िस्मों के अलावा रासायनिक उर्वरकों का भी अहम योगदान था. 1960-1961 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग प्रति हेक्टेयर दो किलोग्राम होता था, जो 2018-19 में बढ़कर 133.1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया. इसमें उन्नत‍िशील बीजों और स‍िंचाई की सुव‍िधा बढ़ने का भी बड़ा योगदान है. 

श्वेत क्रांति की कहानी 

साल 1950-51 की बात करें तो तब भारत में स‍िर्फ 17 म‍िल‍ियन टन दूध का उत्पादन होता था. प्रत‍ि व्यक्त‍ि प्रत‍ि द‍िन दूध की उपलब्धता स‍िर्फ 124 ग्राम थी. नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड के मुताब‍िक 2019-20 में उत्पादन बढ़कर 198.4 म‍िल‍ियन टन हो गया है और प्रत‍िद‍िन प्रत‍ि व्यक्त‍ि दूध की उपलब्धता 406 ग्राम हो गई है. यह सफलता श्वेत क्रांति की बदौलत म‍िली है, ज‍िसे हम ऑपरेशन फ्लड के रूप में भी जानते हैं. ऑपरेशन फ्लड कार्यक्रम 1970 में शुरू हुआ था. इसके नायक थे डॉ. वर्गीज कुरियन. साल 1970 में शुरू हुई इस क्रांति ने दूध की कमी झेल रहे देश को आज दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक बना द‍िया है. आज भारत सालाना 8.5 लाख करोड़ रुपये मूल्य का दूध उत्पादन करता है. जो गेहूं और चावल के मूल्य से ज्यादा है. 

ऑपरेशन फ्लड तीन चरणों में शुरू हुआ और तीन दशक तक चला. 1970-1980 के दौरान पहले चरण में स्किम्ड मिल्क पाउडरऔर बटर की बिक्री के जर‍िए रकम एकत्र की गई. जबक‍ि 1981-1985 के दौरान दूसरे चरण में दूध के भंडार-गृहों की संख्या बढ़ाई गई और 1985-1996 के दौरान तीसरे चरण में दूध के अतिरिक्त उत्पादन के भंडारण और खरीद के लिए आवश्यक बाजार एवं बुनियादी ढांचे के विस्तार के ल‍िए डेयरी सहकारी समितियों को मजबूत करने पर फोकस क‍िया गया.  

खाद्यान्न उत्पादन: तब और अब.

अब बैल नहीं ट्रैक्टर है पहचान 

कृष‍ि क्षेत्र की तरक्की में ट्रैक्टर की भूमिका भी प्रमुख रही है. ट्रैक्टर खेत पर सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली मशीन है. ज‍िसने इस क्षेत्र का काया पलटने का काम क‍िया. जमीन को फसल बुवाई के ल‍िए तैयार करने, बीज डालने, पौध लगाने, फसल काटने, सिंचाई करने, थ्रेशिंग करने और अनाज को मंड‍ियों तक पहुंचाने तक के काम में इसका बड़ा योगदान है. 

कभी हल और बैल भारत की खेती-क‍िसानी की पहचान हुआ करते थे, लेक‍िन अब इसकी जगह ट्रैक्टरों ने ली है. यह कृष‍ि क्षेत्र का सबसे बड़ा हथ‍ियार और क‍िसानों की ग्रोथ प्रतीक भी है. इसके व‍िकास की कहानी भी आजादी के बाद शुरू हुई थी. भारत ने 1950 और 1960 के दशक में ट्रैक्टरों का निर्माण शुरू किया. 1980 के दशक के अंत तक हम सालाना 1,40,000 यूनिट ट्रैक्टर प्रति वर्ष बनाने लगे थे. अब हम सालाना करीब 10 लाख ट्रैक्टरों का न‍िर्माण कर रहे हैं और बड़े पैमाने पर इसका एक्सपोर्ट भी कर रहे हैं. 

कृष‍ि शिक्षा का योगदान  

भारत की कृष‍ि क्षेत्र की तरक्की में क‍िसानों की मेहनत को हम सबसे ऊपर रखते हैं, लेक‍िन कृष‍ि श‍िक्षा को भी नहीं भूल सकते. कृष‍ि श‍िक्षा ने क‍िसानों को समय के साथ कदमताल करना स‍िखाया. इसके जर‍िए तैयार वैज्ञान‍िकों की फौज ने नए बीज और मशीनें तैयार की. ज‍िससे हम इस क्षेत्र में आगे बढ़ते चले गए. यह काम आज भी जारी है. आज कृष‍ि क्षेत्र में नैनो टेक्नोलॉजी, ड्रोन और ड‍िज‍िटल तकनीक का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. आज हमारे पास लगभग सभी प्रमुख फसलों पर शोध करने वाले संस्थान मौजूद हैं, जो खेती-क‍िसानी के व‍िकास के ल‍िए अपने-अपने काम में जुटे हुए हैं. 

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