Natural Farming: योगी आदित्यनाथ सरकार का ये मॉडल फार्म किसानों को कितना प्रेरित करेगा?

Natural Farming: योगी आदित्यनाथ सरकार का ये मॉडल फार्म किसानों को कितना प्रेरित करेगा?

इस समय पूरे देश का शुद्ध पर जोर है. बहुत सारे शहरी लोग अब ब्रांडेड कंपनियों के पैकेट बंद आटा से तौबा करने लगे हैं. खुद गेहूं खरीदकर अपनी नजरों के सामने चक्की पर जाकर आटा पिसाना पसंद कर रहे हैं. लेकिन क्या साफ-सुथरा दिखने वाले गेहूं में भी हमें जहरमुक्त होने की गारंटी मिल सकती है? कतई नहीं. ये गारंटी तभी मिलेगी, जब खेतों से ही प्राकृतिक प्रोडक्ट निकलेगा. प्राकृतिक खेती में क्या दिक्कतें और क्या फायदा है, ये ‘किसान तक’ की टीम ने उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार के एक मॉडल खेत की पड़ताल की.

प्राकृतिक खेती को पूरी दुनिया में बढ़ावा दिया जा रहा है. Graphics: Sandeep Bharadwajप्राकृतिक खेती को पूरी दुनिया में बढ़ावा दिया जा रहा है. Graphics: Sandeep Bharadwaj
ब‍िपुल पांडेय
  • Noida,
  • Jun 14, 2023,
  • Updated Jun 14, 2023, 5:49 PM IST

आगरा से लखनऊ की तरफ एक्सप्रेसवे पर चलने के बाद कुछ दूर इटावा (Etawah) में जौनई की तरफ उतरने का कट मिलता है. उस कट से नीचे उतरकर कुछ किलोमीटर आगे बढ़ने पर धौलपुर खेड़ा नाम का कस्बा मिलता है. और धौलपुर खेड़ा से दाहिनी तरफ मुड़ने पर सिरहौल पड़ता है. इसी सिरहौल गांव में ‘किसान तक’ की टीम, प्राकृतिक खेती का नमूना देखने पहुंची थी. केंद्र सरकार किसानों को ‘जीरो बजट खेती’ और गौवंश आधारित ‘प्राकृतिक खेती’ अपनाने के लिए जोर दे रही है. इस योजना को आगे बढ़ाते हुए उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने राज्य में प्राकृतिक खेत के कई मॉडल्स तैयार किए हैं.
ताकि बाकी किसानों को नेचुरल फार्मिंग (Natural Farming) के फायदों का पता चले और अधिक से अधिक किसान रासायनिक खेती (Chemical Farming) छोड़ने के लिए प्रेरित हों. उन्ही फार्म में से एक फार्म, प्रगतिशील किसान अरविंद प्रताप सिंह का. जब हम अरविंद प्रताप सिंह के फार्म पर पहुंचे तो वो धारीदार कमीज और पैंट पहने हमें अपना फार्म दिखाने के लिए उत्सुक दिखे.

आधे हेक्टेयर में सालाना सवा लाख कमाई

प्रगतिशील किसान अरविंद प्रताप सिंह का मॉडल फार्म सिर्फ आधे हेक्टेयर का है. लेकिन आधे हेक्टेयर में ही किसान ने 25 तरह के फल लगा रखे हैं, उनके खेत में सात प्रकार की सब्जियां होती हैं, तो तीन प्रकार के खाद्यान्न पैदा होते हैं. इसके अलावा उनके खेत में तिलहन भी होता है. इस आदर्श खेत से किसान की साल में करीब सवा लाख रुपये की कमाई हो रही है, जिसमें से 25 हजार रुपये गौवंश से होने वाली कमाई है.

इटावा में प्रगतिशील किसान का आधे हेक्टेयर का फार्म है. Graphics- Sandeep Bharadwaj

प्राकृतिक खेती करने वाले प्रगतिशील किसान बताते हैं कि 2017 में उन्होंने यूपी सरकार के सहयोग से आदर्श खेत तैयार करना शुरू किया, लेकिन 4 साल तक उन्हें प्राकृतिक खेती में कुछ खास फायदा नहीं हुआ. प्राकृतिक खेती का फायदा चार साल बाद नजर आया, जब उनके बाग में लगे पेड़ों पर फल आने लगे. ये पेड़ भी प्राकृतिक तरीके से बड़े हुए, यानी इनके पोषण के लिए गोबर खाद डाला गया था और कीटों से बचाव के लिए प्राकृतिक पेस्टिसाइड डाले गए थे. चार साल के परिश्रम के बाद जब साल 2021 से इनपर फल आने लगे तो पूरे आधे हेक्टेयर की खेती से होने वाली आय 3 से 4 गुना तक बढ़ गई. फलों का स्वाद लोगों को बहुत पसंद आया और जब लोगों को पता चला कि ये स्वास्थ्य के लिए भी उतने ही बेहतर हैं तो दूर-दूर से खरीदारों की डिमांड आने लगी. अरविंद सिंह थोड़ी देर तक हिसाब लगाकर बताते हैं कि अब यानी 2023 आने तक आधे हेक्टेयर की खेती से ही करीब एक लाख रुपये की सालाना कमाई होने लगी है, जबकि प्राकृतिक खाद लेने के लिए जो गौवंश पालते हैं, उनसे ₹25000 मूल्य का दूध-दही बिक जाता है. यानी कुल मिलाकर सालाना सवा लाख रुपए तक की कमाई हो जाती है. चूकि प्राकृतिक खेती का मतलब होता है कि खेत से कुछ भी ना बाहर जाएगा, ना अंदर आएगा, तो उनकी खेती की लागत कम हो गई है. ये लाभ देखकर उन्होंने इस साल से नेचुरल फार्मिंग का रकबा बढ़ाकर 1 हेक्टेयर कर लिया है.

धतूरे का पौधा तक काम आ जाता है

चौंकाने वाली बात ये है कि प्रगतिशील किसान ने अपने फार्म में धतूरा और मदार तक के पौधे लगा रखे हैं. पूछने पर वो शान से बताते हैं कि ये पौधे अपने आप नहीं उगे हैं, बल्कि इन्हें उन्होंने सोच-समझकर लगाया है. उनका कहना है कि- ‘प्राकृतिक खेती का अर्थ है कि हम इन्हीं सब चीजों का प्रयोग करके अपने लिए एक ऐसा खाद्यान्न उत्पन्न करें, ऐसे फल सब्जी और अन्न उत्पन्न करें, जिसमें कोई भी रासायनिक तत्व ना हो. ये हमारे शरीर के लिए बहुत अच्छे साबित हों, हमारे शरीर को स्वस्थ रखें. अगर धतूरे की बात करें तो इन धतूरों से नेचुरल दवाएं बनाई जाती हैं. अगर कोई कीट व्याधि फसल पर आती है तो उसको दूर भगाने के लिए ये जरूरी होता है. नेचुरल का काम ही है कि हम किसी को मारे नहीं, केवल उनको हम अपनी फसल से दूर रखें. उसके लिए हम धतूरा, सफेद अकोला, अरंडी, शरीफा, सफेद कनेर का प्रयोग करते हैं.’

नेचुरल पेस्टिसाइड है ‘दसपर्णी अर्क’

सरकार की ओर से प्राकृतिक खेती की ट्रेनिंग दी जाती है और इस ट्रेनिंग में किसानों को दसपर्णी अर्क तैयार करना सिखाया जाता है. इसमें दस तरह के वो पत्ते लिए जाते हैं, जिन्हें पशु नहीं खाते. क्योंकि माना जाता है कि जो पत्ते पशु नहीं खाते, उसके पीछे कोई ना कोई वजह होती है. या तो उनका स्वाद कसैला होता है, जिसे खाने से पशु बचते हैं. या फिर वो पत्ता हानिकारक होता है. ये ही फॉर्मूला कीट या रोगाणुओं पर भी लागू होता है. फसल खाने वाले कीट भी ऐसे पत्तों से बचते हैं और जब इन पत्तों का अर्क तैयार करके फसलों, पेड़ों पर छिड़काव किया जाता है, तो कीट दूर भागते हैं.

‘दसपर्णी अर्क’ तैयार करने का तरीका ये है

दसपर्णी अर्क तैयार करने के लिए 10 तरह के ऐसे पत्ते लिए जाते हैं, जिन्हें पशु नहीं खाते. उन्हें कुट्टी की मशीन से या गड़ासी से काट कर छोटा-छोटा कर लिया जाता है. फिर 200 लीटर का ड्रम लेते हैं और उसमें पानी भर देते हैं. उसी पानी में 10 पर्ण यानी पत्तों को डाल दिया जाता है. पहले दिन और सुबह शाम घड़ी की दिशा में उसको डंडे से चलाया जाता है. एक ही दिशा में चलाने की वजह ये है कि उसमें जो बैक्टीरिया बनते हैं, वो दोनों साइड में डंडों को चलाने से मर जाते हैं. एक दिशा में चलाने पर जो भंवर बनता है, उसके साथ ऑक्सीजन तह तक पहुंच जाता है. दूसरे दिन 1 किलो तीखी मिर्च, 1 किलो अदरक की चटनी बना लेते हैं. उसमें आधा किलो हल्दी, आधा किलो गुड़ डाल देते हैं और इन सभी को उसी ड्रम में मिला देते हैं. तीसरे दिन 1 किलो तंबाकू की डस्ट और 1 किलो लहसुन लेते हैं और इन्हें कूट पीस कर उसी ड्रम में मिला देते हैं. फिर घोल को सुबह-शाम डंडे से नियमित तौर पर घुमाते रहते हैं. लगभग 35 से 40 दिन तक इस प्रक्रिया को लगातार दोहराया जाता है. इसके बाद दसपर्णी अर्क तैयार हो जाता है. ड्रम में मौजूद तत्व को छानकर बोतलों में भर लिया जाता है और रख लिया जाता है. जब फसलों या पेड़-पौधों पर कीट-व्याधि का हमला होता है, या होने वाला होता है, तब उस पर इसका छिड़काव कर देते हैं. ये पूरी तरह से प्राकृतिक पेस्टिसाइड होता है, जो कीटों को दूर भगा देता है.

प्रगतिशील किसान अरविंद प्रताप सिंह अपने फार्म के बारे में बताते हुए. फोटो: किसान तक

प्रगतिशील किसान बताते हैं कि- ‘जैसे ही हमें पता चलता है कि फसल में कोई कीट-रोग आने वाला है या आ चुका है, तो उस समय दसपर्णी अर्क को 15 लीटर पानी में आधा लीटर की मात्रा में मिलाकर छिड़क देते हैं. यदि फसल में कोई बड़ा कीट लग जाता है तो अर्क की मात्रा थोड़ी सी बढ़ा देते हैं. आधे लीटर की जगह 700 ग्राम या 1 लीटर तक अर्क का उपयोग किया जाता है. इस हिसाब से हम अपनी फसल में अर्क का छिड़काव कर देते हैं तो कोई भी कीड़ा हो, हमारी फसल से, खेत से बाहर भाग जाते हैं. इससे हम उनकी हत्या भी नहीं करते हैं और अपनी फसल को भी बचा लेते हैं. इसलिए हम यह धतूरा और अन्य जो कीटनाशक पौधे, जो हमें प्रकृति ने दिए हैं, उनकी हम अपने ही खेतों में खेती करते हैं.’

प्राकृतिक खेती से पेट में जहर नहीं जाएगा

इटावा के कृषि विभाग के उपनिदेशक राम नारायण सिंह का कहना है कि- ‘प्राकृतिक खेती में प्रकृति से संतुलन बनाया जाता है. प्रकृति के पास जो भी संसाधन उपलब्ध हैं, उन्हीं से खेती की जाती है. इसमें गौवंश आधारित खाद का प्रयोग किया जाता है, जीवामृत बनाकर उनका पेस्टिसाइड के तौर पर उपयोग करते हैं. इसका फायदा ये है कि प्राकृतिक कीटनाशक का जितना भी प्रयोग कर लें, हमारे शरीर में जहर नहीं जाएगा. अभी तमाम माध्यमों से हमारे शरीर में केमिकल जा रहा है.

उत्तर प्रदेश सरकार का इटावा में प्राकृतिक खेती का मॉडल फार्म. फोटो: किसान तक

फूल से, सब्जियों से, अनाज से, हर माध्यम से हमारे शरीर में जहर जा रहा है. लेकिन यदि हम प्राकृतिक कीटनाशक का उपयोग करेंगे, तो उनमें कोई जहर नहीं है. ना नीम जहर है, ना कनेर जहर है. यह वैसे ही है, जैसे अगर आपके खाने में थोड़ा सा मिट्टी का तेल (Kerosene) मिला दिया जाए, तो आप खाना नहीं खा पाएंगे. जबकि एक-दो बूंद केरोसिन से शरीर को कोई हानि नहीं होती है. प्राकतिक पेस्टिसाइड भी ऐसे ही काम करता है. इससे कीट की मृत्यु भी नहीं होती है और वो हमारी फसल भी नहीं खा पाते हैं.’

प्राकृतिक उत्पाद से किसान का पेट नहीं भरता

असल समस्या बाजार की है. जहर मुक्त उत्पाद होने के बावजूद किसानों का उत्पाद, केमिकल प्रोडक्ट के साथ ही बाजार में पहुंचता है. तमाम फायदे होने के बावजूद उनका अच्छा दाम नहीं मिल पाता. प्रगतिशील किसान अरविंद प्रताप सिंह का कहना है कि- ‘सबसे बड़ी जो परेशानी है, वह यही है कि हम उत्पादन तो भरपूर ले रहे हैं और ऐसा उत्पादन ले रहे हैं जो कि बिल्कुल जहर रहित है, स्वास्थ्य के लिए सौ परसेंट अच्छा है, लेकिन इसका हमें कहीं भी मार्केट उपलब्ध नहीं है. अभी तक सरकार ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बना पाई है कि किसानों के प्राकृतिक उत्पाद को मंडी मिल जाए.’

प्राकृतिक खेती में शुरुआती सालों में किसान को सहयोग की जरूरत होती है. Graphics- Sandeep Bharadwaj

दरअसल प्राकृतिक खेती की दिक्कत यही है. अगर किसान अपनी उपज के लिए नेचुरली प्रोड्यूस का सर्टिफिकेट लेना चाहे तो उसे मोटी रकम खर्च करनी पड़ सकती है. इससे उसे घाटा होना तय है. दूसरी तरफ अगर किसान अपनी उपज को बिना सर्टिफिकेट के बाजार में बेचने के लिए ले जाता है तो उसे और भी कष्ट होता है. प्राकृतिक अन्न को भी रासायनिक अन्न से ज्यादा मूल्य नहीं मिलता. बावजूद इसके कि इसकी पैदावार में ज्यादा मेहनत लगती है.

MORE NEWS

Read more!