गेहूं भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की सबसे अहम खाद्य फसलों में से एक है. रोज की रोटी से लेकर बड़े खाद्य उद्योग तक, हर जगह गेहूं की जरूरत है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी थाली तक पहुंचने वाले एक किलो गेहूं को उगाने में कितना पानी खर्च होता है. इसका जवाब खेती और पानी दोनों के लिहाज से बेहद अहम है.
वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, एक किलो गेहूं उगाने में वैश्विक औसतन करीब 1800 से 1830 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है. इसे ही गेहूं का वॉटर फुटप्रिंट कहा जाता है. यह आंकड़ा केवल सिंचाई के पानी का नहीं है, बल्कि इसमें बारिश का पानी, जमीन में समाया पानी और खेत में इस्तेमाल होने वाले उर्वरकों से जुड़ा पानी भी शामिल होता है.
वॉटर फुटप्रिंट को तीन हिस्सों में समझा जाता है. पहला है - ग्रीन वॉटर यानी वह पानी जो बारिश के रूप में मिट्टी में जमा होता है और पौधा अपनी जड़ों से लेता है. गेहूं की कुल पानी जरूरत का करीब 60 से 70 प्रतिशत हिस्सा इसी ग्रीन वॉटर से पूरा होता है.
दूसरा है- ब्लू वॉटर यानी नहर, ट्यूबवेल, तालाब या अन्य सिंचाई स्रोतों से दिया गया पानी.
तीसरा है- ग्रे वॉटर यानी वह पानी जो खेत में डाले गए उर्वरक और रसायनों के असर को कम करने के लिए प्रकृति को चाहिए होता है.
भारत के कई हिस्सों, खासकर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे गहन सिंचाई वाले इलाकों में, गेहूं का वास्तविक वॉटर फुटप्रिंट वैश्विक औसत से काफी ज्यादा पाया गया है. अलग-अलग क्षेत्रीय अध्ययनों के अनुसार, इन इलाकों में एक किलो गेहूं उगाने में 2200 से 2500 लीटर तक पानी खर्च हो सकता है. इसकी मुख्य वजह यह है कि रबी मौसम में वर्षा सीमित होती है और फसल की बड़ी जरूरत भूजल से पूरी की जाती है.
इसका सीधा मतलब यह है कि जहां गेहूं की खेती ज्यादा सिंचाई पर निर्भर है, वहां पानी का दबाव भी उतना ही ज्यादा बढ़ता है. भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्यों में गेहूं की पैदावार भले ही ऊंची हो, लेकिन प्रति किलो अनाज पर पानी की खपत भी ज्यादा होती है. यही कारण है कि इन क्षेत्रों को जल-संकट के लिहाज से सबसे संवेदनशील माना जाता है.
दिलचस्प बात यह भी है कि अगर गेहूं वर्षा आधारित क्षेत्रों में उगाया जाए, सिंचाई का समय सही चुना जाए और खेत में पानी रोकने वाली तकनीकें अपनाई जाएं तो प्रति किलो गेहूं पानी की खपत को काफी हद तक कम किया जा सकता है. यानी खेती की तकनीक बदलकर पानी बचाया जा सकता है, बिना उत्पादन घटाए.
खेती के भविष्य के लिहाज से यह फैक्ट इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि आने वाले समय में पानी सबसे बड़ी चुनौती बनने वाला है.