कृषि विभाग की हाल ही में एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है. दरअसल, इस रिपोर्ट में बताया गया है कि फसलों में यूरिया खाद का इस्तेमाल हाल के सालों में करीब 200 प्रतिशत तक होने लगा है. फसल में यूरिया का बढ़ने का सीधा मतलब है कि हमारी और आपकी थाली में भी यूरिया यानी नाइट्रोजन का मात्रा बढ़ रही है. कृषि विभाग ने एक स्टडी में पाया कि सबसे ज्यादा यूरिया का इस्तेमाल गेहूं की फसल में हो रहा है और फिर रोटी के जरिए ये हमारे शरीर में जा रहा है. इससे साफ जाहिर है कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति लगभग शून्य हो चुकी है और ये अत्यधिक यूरिया का इस्तेमाल हमारे गुर्दों के लिए बेहद खतरनाक है.
दैनिक भास्कर में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, गेहूं के लिए किसानों को एक एकड़ में 120 किलो नाइट्रोजन खाद इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है, मगर असल में किसान 150 से 200 किलो तक इस्तेमाल कर रहे हैं. वहीं सरसों की फसल में जिस नाइट्रोजन की मात्रा 90 किलो होनी चाहिए, उसकी बजाय किसान 250 किलो तक उपयोग कर रहे हैं. बता दें कि एक यूरिया खाद का कट्टा 45 किलो का होता है, जिसमें 20 किलो नाइट्रोजन होता है. नाइट्रोजन के इतने ज्यादा उपयोग का सीधा असर हमारे शरीर पर पड़ रहा है. चिंता की बात ये भी है कि इतना ज्यादा यूरिया इस्तेमाल करने के बावजूद भी किसानों को पैदावार ज्यादा नहीं बल्कि स्थिर ही मिल रही है. इसका मतलब ये हुआ कि मिट्टी का स्वास्थ्य बेहद खराब हालात में है.
रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान के कोटा जिले में ही हर साल 1 लाख 10 हजार मीट्रिक टन की जरूरत होती है, मगर मांग पूरी नहीं हो पाती. लिहाजा किसान दूसरी जगहों से यूरिया लाकर खेत में डाल रहे हैं. इसको लेकर कृषि विभाग ने एडवाइजरी भी जारी की है.
समझने वाली बात ये है कि यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल से सिर्फ इंसान ही नहीं, बल्कि फसल और खेत की सेहत के लिए खराब है. होता ये है कि ज्यादा यूरिया डालने से पौधों में मिठास बढ़ती है जिससे इसमें कीट लगने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है. इसके अलावा जब किसान पौधों की ज्यादा बढ़वार के लिए ज्यादा यूरिया का उपयोग करते हैं तो ग्रोथ तो मिल जाती है, मगर इससे पौधे की दाना बनने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है. इतना ही नहीं, ज्यादा नाइट्रोजन की मात्रा होने से पौधों में पोटाश की कमी होने लगती है. नतीजतन दाने में चमक नहीं आ पाती, इसका वजन हल्का रह जाता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी घटती है. कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि यूरिया की ज्यादा मात्रा जमीन में चली जाती है तो ये पानी में मिलने लगती है, जिससे ब्लू बेबी सिंड्रोम का खतरा बढ़ता है.
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