अगर हम आपको बताएं कि एक मिर्च ऐसी है जिसका प्रयोग मिठाई से लेकर कॉस्मेटिक्स बनाने में होता है तो आप शायद हैरान रह जाएंगे. लेकिन यह सच है और वारंगल की मशहूर चपाता मिर्च इसी काम में आती है. हाल ही में इस मिर्च को जीआई टैग भी मिला है. इस तरह की उपलब्धि हासिल करने वाली यह मिर्च तेलंगाना का 18वां और भारत का 665वां प्रॉडक्ट है. टमाटर मिर्च के नाम से भी मशहूर इस मिर्च के दिवाने चीन और अमेरिका तक में हैं. इसके आकार की वजह से इसे टमाटर मिर्च कहते हैं.
मध्य तेलंगाना में पैदा होने वाली यह मिर्च अपनी रंगत की वजह से काफी मशहूर है. तेज लाल रंग वाली इस मिर्च में तीखापन कम होता है. साथ ही इसका हीट स्कोर करीब 3,100-6,500 स्कोविल हीट यूनिट (एसएचयू) होता है. अमेरिका, चीन, यूके, जर्मनी और यूरोप के बाकी देशों में इस मिर्च की काफी मांग है. यह मिर्च, जो अपने कम तीखेपन और अनोखे लाल रंग के लिए जानी जाती है, मुख्य तौर पर वारंगल जिले के थिम्मापुर में उगाई जाती है. चपाता मिर्च अपनी ओलियोरेसिन कंटेंट के लिए मशहूर है जो 6.37 से 6.75 प्रतिशत तक है. इस वजह से इसका प्रयोग हाई क्वालिटी की मिठाइयों, कॉस्मेटिक्स, ड्रिंक्स और दवाओं जैसे क्षेत्रों में होता है. आप को जानकर हैरानी होगी कि इस मिर्च के नैचुरल लाल रंग को लिपस्टिक और बाकी ब्यूटी प्रॉडक्ट्स को बनाने में किया जाता है.
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इसकी ताजा पकी हुई और मोटी स्किन वाली मिर्च को प्रयोग अचार बनाने के लिए होता है. वारंगल, हनुमाकोंडा, मुलुगु और जयशंकर भूपालपल्ली जिलों में लगभग 6,783 एकड़ में उगाई जाने वाली इस मिर्च किस्म का हर साल सिर्फ 10,000-11,000 टन उत्पादन होता है. यह किस्म अपनी अनूठी विशेषताओं और प्राकृतिक लाल रंग के गुणों के लिए प्रसिद्ध है. डेक्कन हेराल्ड के अनुसार इतिहासकारों का दावा है कि इस मिर्च की खेती करीब 80 साल पहले जम्मीकुंटा मंडल के नागरम गांव में शुरू हुई थी. इसमें नादिकुडा गांव शायद सबसे पुरानी जगह है जहां पर इस मिर्च को उगाया गया था. यह किस्म मुख्य तौर पर वेलामा समुदाय के बीच बीज साझा करने की वजह से आसपास के समुदायों तक फैल गई.
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श्री कोंडा लक्ष्मण तेलंगाना हॉर्टीकल्चर यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉक्टर दंडा राजी रेड्डी की मानें तो जीआई टैग मिलने से करीब 20,574 किसानों को फायदा होगा. माना जा रहा है कि किसान अब मिर्च की कीमत बाजार मूल्य 300 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़ाकर 450-500 रुपये कर सकते हैं. वारंगल क्षेत्र की स्थानीय मिट्टी और जलवायु मिर्च की गुणवत्ता निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
मिर्च की कटाई फरवरी से मार्च तक होती है जब फलियां पूरी तरह पक जाती हैं और पौधों पर 60-70 प्रतिशत सूख जाती हैं. फलों को दो से तीन कटाई में हाथ से तोड़ा जाता है और अधिकांश उत्पादन पहली कटाई के दौरान ही इकट्ठा कर लिया जाता है. डॉक्टर राजी रेड्डी ने कहा कि इस किस्म की कटाई के लिए कम मेहनत की आवश्यकता होती है क्योंकि यह मोटी होती है. हर पौधे पर फलियां भी कम होती हैं और डंठल भी कमजोर होता है.