तेलुगू फिल्म इंडस्ट्री बॉक्स ऑफिस के हिसाब से देश की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री है. ‘बाहुबली’ की अपार सफलता के बाद तेलुगू फिल्म इंडस्ट्री ने तकनीक और स्पेशल अफ़ेक्ट्स के अद्भुत इस्तेमाल से सिनेमैटोग्राफी में अपनी खास पहचान बनाई है. 1921 में ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ नाम की फिल्म से शुरू हुआ तेलुगू फिल्मों का सफर आज एक शानदार पड़ाव पर है, जहां तेलुगू फिल्में न सिर्फ अन्य भाषाओं में डब हो रही हैं, बल्कि इनमें से अनेक फिल्मों के हिन्दी में रीमेक भी बनाए जा रहे हैं.
अक्सर तेलुगू सिनेमा कमर्शियल हितों को ध्यान में रख कर ही बनाया जाता है. लेकिन चूंकि सामाजिक और राजनीतिक सरोकार साहित्य, संगीत, संस्कृति और सिनेमा से घनिष्ठ रूप से जुड़े हैं, इसलिए तमाम रोमांस, एक्शन और थ्रिल के मसालों के साथ ही गंभीर मुद्दों पर टिप्पणी या संवाद या एक उपकहानी की तरह इनका प्रयोग यदा-कदा देखने को मिल ही जाता है.
ऐसी ही एक फिल्म है ‘श्रीमंतुडु’ जो किसानों और ग्रामीणों के शहर की तरफ पलायन के अहम मुद्दों को उठती है. तेलुगू के सुपर स्टार महेश बाबू द्वारा प्रोड्यूस की गई यह पहली फीचर फिल्म है. निर्देशक कोरतला सिवा मूलतः स्क्रीनप्ले और संवाद लेखक रहे हैं. इसलिए कहानी पर सिवा की पकड़ बहुत अच्छी है.
‘श्रीमंतुडु’ की कहानी शुरुआत में एक आम रोमांटिक फिल्म की तरह ही लगती है. हर्षवर्धन एक करोड़पति बिज़नेसमैन का बेटा है, लेकिन वह परिवार में सबसे अलग है. वह अपने पिता के बिज़नेस का इकलौता वारिस है, लेकिन वह इससे अलग कुछ करना चाहता है. आलीशान गाड़ियों को छोड़ वह अपनी साइकिल पर घूमता है. पिता रविकान्त को इस बात की फिक्र है. हर्षवर्धन की मुलाक़ात होती है चारुशीला से जो ग्रामीण विकास और तकनीक पर अध्ययन कर रही है. हर्षवर्धन को यह विषय और चारुशीला दोनों दिलचस्प लगते हैं और वह इसी कोर्स में एड्मिशन ले लेता है.
चारुशीला को अपने गांव से अपनी जड़ों से बहुत लगाव है. जब उसे पता चलता है कि हर्षवर्धन करोड़पति रविकान्त का बेटा है, तो वह उसे बताती है कि रविकांत और उसका गांव एक ही है, लेकिन उसके पिता नारायण राव गांव के कल्याण और विकास के बारे में सोचते रहते हैं, जबकि रविकांत गांव को छोड़ कर खुद शहर में ऐश की ज़िंदगी बिता रहे हैं.
चारुशीला से प्रेरित होकर हर्षवर्धन अपने पैतृक गांव देवरकोटा की अरफ रुख करता है. सूखे से ग्रस्त इस दूर दराज़ स्थित गांव को शक्तिशाली जमींदार शशि का ग्रहण भी लगा हुआ है. पानी की कमी और शशि के अत्याचार से परेशान होकर लोग धीरे-धीरे यह गांव छोड़ रहे हैं या तंग आकार आत्महत्या कर रहे हैं. चारुशीला के पिता नारायण राव पूरा प्रयास कर रहे हैं कि गांव के हालात को बेहतर बना सकें, लेकिन शशि और उसके रिश्तेदार, केंद्रीय मंत्री वेंकटरमन के सामने बेबस हैं. उन्हें चारुशीला से उम्मीद है कि वह पढ़ाई के बाद तकनीक के इस्तेमाल से गांव की स्थिति सुधारने की कोशिश करेगी.
हर्षवर्धन को देवरकोटा आकर ऐसा लगता है मानो उसे आखिरकार अपने जीवन का उद्देश्य मिल गया हो. वह गांव की हालत सुधारने में जुट जाता है. अस्पताल, स्कूल और तालाब बनवाता है. उसे भी मंत्री और शशि के आक्रोश का शिकार होना पड़ता है. फिर उसे अपने पिता के अतीत का भी पता चलता है. अंततः, जैसा कि हर कमर्शियल फिल्म में होता है, हीरो सारे विलेन्स को हरा देता है और गांव में खुशहाली लौट आती है. नायक को अपनी जड़ों तक लौटने के बाद जीवन का उद्देश्य मिल जाता है.
ये भी पढ़ें:- रागी के आटा को महीनों तक रखें फ्रेश, करें ये 5 आसान टिप्स फॉलो, स्वाद नहीं होगा खराब
एक हल्की-फुलकी मनोरंजक फिल्म में कुछ गंभीर सवाल उठाए गए हैं- खेती मे आने वाली समस्याओं से परेशान किसानों का आजीविका की तलाश में शहर की तरफ रुख करना, भ्रष्टाचार और उसके कारण गांव तक सरकारी मदद ना पहुंच पाना, सूखे और कर्ज़ के कारण किसानों की आत्महत्याओं के मामले और समृद्ध और सफल कारोबारियों द्वारा अपने जन्मस्थल की अनदेखी और उपेक्षा. नायक हर्षवर्धन सही अर्थों में ‘श्रीमंतुडु’ यानी धनवान और बड़े दिल वाला है, क्योंकि वह अपनी पारिवारिक संपत्ति को सिर्फ अपने तक ही नहीं रखना चाहता, बल्कि अपने गांव के सुधार और विकास में लगाता है. नायक के जरिए फिल्म यह संदेश देती है कि हमारा व्यक्तिगत विकास और प्रगति भी तभी हो सकती है, जब हम अपने निजी संसाधनों का प्रयोग अपने समाज और देश को संवर्धित करने में करें.
फिल्म के संवाद सरल और सहज हैं. बगैर किसी मेलोड्रामा के. सरल, अपने समाज के प्रति समर्पित और मुंहफट चारुशीला की भूमिका में श्रुति हासन आकर्षक लगती हैं. कम बोलने वाले सख्त कारोबारी के तौर पर जगपति बाबू भी प्रभावशाली हैं. लेकिन फिल्म का सारतत्व उसके संवादों में और नरेशन में है. कहानी धीरे धीरे खुलती है, और इसीलिए फिल्म में दिलचस्पी बनी रहती है.
लेकिन हर कमर्शियल फिल्म की तरह यह कहानी भी समस्याओं और मुद्दों का सरलीकरण कर देती है. सूखा, भ्रष्टाचार और किसानों का विभिन्न स्तरों पर शोषण –जटिल मुद्दे हैं. उनका हल महज़ कुछ विलेन्स को मार कर नहीं मिल सकता.
बहरहाल, मुख्यधारा की फिल्म इन मुद्दों को उठा रही है- यही एक अच्छी बात है. दक्षिण की कमर्शियल फिल्में यह काम बखूबी कर रही हैं. विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण और प्रासंगिक मुद्दों को संवादों या कुछ किरदारों के माध्यम से अभिव्यक्त करने का यह चलन हिन्दी फिल्म ‘जवान’ में भी देखने को मिला और लोगों ने इसे सराहा भी.
‘श्रीमुंतुडु’ अगस्त 2015 में रिलीज़ हुई. प्रोड्यूसर्स को यह डर था कि शायद लोग इस फिल्म को ना देखें क्योंकि यह किसानों और गांवों की बात कर रही है. इसलिए उन्होने आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक के कुछ फिल्म हाल्स में इस फिल्म के ‘बेनिफ़िट शो’ आयोजित किए. इन शोज़ में फिल्म को दर्शकों की भरपूर प्रशंसा मिली. फिल्म जब पूरे देश में रिलीज़ हुई तो इसने बॉक्स ऑफिस का दिल जीत लिया. 40 करोड़ के बजट पर बनी फिल्म ने लगभग 140 करोड़ का कारोबार किया.
अभिनेता जगपति बाबू ने बाद में कहा भी कि पूरी टीम फिल्म की ज़बरदस्त सफलता से हैरान थी. निर्देशक सिवा कोरतला ने एक इंटरव्यू में बताया कि वे इस सफलता से गदगद हैं और आगे भी मुद्दों पर आधारित फिल्में बनाते रहेंगे.
एक खबर के अनुसार, आंध्रप्रदेश के तत्कालीन डी.जी.पी ने यह स्वीकार किया कि इस फिल्म के संदेश से प्रभावित होकर उन्होने यह फिल्म करीब 70 बार देखी! ‘श्रीमंतुडु’ और ऐसी कई कमर्शियल फिल्में इस बात का प्रमाण हैं कि अगर गंभीर मुद्दों को लोकप्रिय और कमर्शियल मनोरंजन के माध्यमों से उठाया जाए, तो न सिर्फ आम लोग इन मुद्दों के प्रति जागरूक होते हैं ,बल्कि यह नीति निर्माण में भी मददगार हो सकता है.