अप्रैल 13 हिन्दी सिनेमा के दिग्गज अभिनेता बलराज साहनी की पुण्य तिथि थी. बलराज साहनी ताउम्र अपने एक किरदार और अभिनय को सर्वश्रेष्ठ मानते रहे और वो किरदार था फिल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ के शंभू महतो का. अपनी आत्मकथा ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ में बलराज साहनी लिखते हैं कि वे इस किरदार की सफलता का श्रेय मुंबई में उत्तर प्रदेश और बिहार से आए किसानों और कोलकाता के हाथरिक्शा चालकों को देते हैं. सच तो यह है कि अभिनय पर बहुचर्चित किताब ‘एन एक्टर प्रिपेयर्स’ में जिस मेथड एक्टिंग का ज़िक्र है, उसे बलराज दरअसल इन लोगों के बीच जाकर ही समझ पाये.
यह तो ज़्यादातर लोग जानते हैं कि बलराज साहनी एक सुशिक्षित शहरी व्यक्ति थे जिन्होने ना सिर्फ शांतिनिकेतन में अंग्रेज़ी और हिन्दी पढ़ाई बल्कि बीबीसी लंदन में उद्घोषक के तौर पर भी काम किया था. ऐसे नफीस शख्स को एक गरीब किसान की भूमिका कैसे मिली – ये एक दिलचस्प कहानी है और उससे भी दिलचस्प दास्तां है इस शहरी व्यक्ति के एक गरीब किसान की भूमिका में ढलने की.
1951 में बलराज साहनी को हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में बहुत जद्दोजहद के बाद आखिरकार सफलता मिली थी फिल्म ‘हम लोग’ से. इस फिल्म मे बलराज साहनी एक मध्यवर्गीय शहरी के किरदार में थे और उनके अभिनय को बहुत सराहा गया था. उसके बाद बलराज फिर एक बार एक अच्छे रोल की तलाश में जुट गए . एक संवेदनशील अभिनेता होने के कुछ नुकसान भी होते हैं. फिर बलराज ठहरे मार्क्सवादी, इप्टा (इंडियन पीपल्स थिएटर असोशिएशन) के सदस्य. ऐसे ही किसी अच्छे काम की तलाश करते बलराज के पास आए असित सेन (वही जो बाद में हिन्दी फिल्मों में एक कोमेडियन के तौर पर बहुत मशहूर हुये). असित सेन उस वक्त निर्देशक बिमल रॉय के असिस्टेंट थे. उन्होंने बलराज को कहा कि बिमल दा के पास एक कहानी है जिसका मुख्य किरदार एक किसान है और वो भूमिका आपको निभानी है.
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बलराज ने कहानी सुनी. रोल चुनौतीपूर्ण था. वे मान गए लेकिन मन में एक संशय – कि मेरे जैसे शहरी आदमी को कोई एक गरीब ग्रामीण के रूप में कैसे देख सकता है? बिमल रॉय से मिलने गए तो उन्होने सूट-बूट पहने इस अंग्रेज़ीदां आदमी को देखते ही कहा- “लगता है मेरे असिस्टेंट्स से गलती हुई है, ये रोल आपके लिए नहीं है. आपने तो कभी किसान का किरदार किया ही नहीं होगा.“
बलराज बोल पड़े – “नहीं ऐसा नहीं है, इप्टा के दौरान मेंने ‘धरती के लाल’ नाम की फिल्म में किसान का किरदार अदा किया था.“
ये सुन कर बिमल रॉय ठिठक गए. बिमल रॉय के एक दूसरे असिस्टेंट सलिल चौधुरी की कहानी पर आधारित थी ‘दो बीघा ज़मीन’ और फिल्म का टाइटल रवीन्द्र नाथ टैगोर की बंगला कविता के शीर्षक से प्रेरित था. आखिरकार सलिल चौधुरी और असित सेन के कहने पर बिमल रॉय भी मान गए.
अब शुरू हुई रोल के लिए तैयारी. समस्या ये थी कि ऐसी भूमिका के लिए रोल मॉडल किसे बनाया जाये – तो उन्होंने तय किया कि वे मुंबई के जोगेश्वरी इलाके में रहने वाले तमाम प्रवासी किसानों की बस्ती में जाएंगे. ये किसान ज़्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर यहां बस गए थे और पशु पालन का काम करते थे और मुंबई में वे ‘भैया’ नाम से जाने जाते थे. बलराज रोज़ वहां जाने लगे- उनके उठने बैठने का तरीका, बात करने का, पगड़ी बांधने का तरीका- सभी कुछ पर गौर करते रहते.
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कुछ ही दिनों बाद उन्हें फिल्म की शूटिंग के लिए कोलकाता बुलाया गया. यहां बता दें कि दो बीघा ज़मीन एक ऐसे किसान की कहानी है जो अपनी ज़मीन को कर्जे से मुक्त करने के लिए कोलकाता आकर हाथ रिक्शा चलाने लगता है. लेकिन शहर में आकर शहर की दिक्कतों का सामना करता है. कुछ रोज़ बाद जब वह वापिस गांव पहुंचता है तो देखता है कि उसकी ज़मीन पर अब एक फेक्टरी बनाने की तैयारी हो रही है. जब वह बाड़ से घिरी अपनी ज़मीन की मिट्टी उठा कर माथे पर लगाना चाहता है तो उसे चौकीदार झिड़क देता है- यह फिल्म का आखिरी दृश्य है, जो अविस्मरणीय है.
कोलकाता में बलराज ने हाथ रिक्शा चलाने का अभ्यास किया. इस भूमिका के लिए उन्होंने अपना वज़न भी कम किया. बहरहाल जब शूटिंग शुरू हुई तो पहले तो बलराज ने कहा कि वो अपना मेकअप खुद करेंगे. फिर दिन भर हाथ रिक्शा चलाने के दौरान उन्हें अन्य अनेक दिक्कतों से जूझना पड़ा जिनका ज़िक्र उन्होने अपनी आत्मकथा में और उनके बेटे परीक्षित साहनी ने अपने संस्मरणों में किया है. मसलन- एक बार बिमल रॉय ने सुबह-सुबह शूट करने की योजना बनाई. शूटिंग करते-करते बलराज को भूख लगी तो वे अपने गेटअप में ही पास की हलवाई की दुकान पर चले गए और उससे पीने के लिए दूध मांगा. हलवाई ने उन्हें डांट कर भगा दिया और बलराज साहनी को भूखे ही पूरी शिफ्ट शूट करना पड़ा. इसी तरह उन्हें शूटिंग के दौरान एक तरफ से सवारी उठानी होती थी और कुछ दूर जाकर सवारी को उतारना होता था. एक दोपहर रिक्शा चला-चला कर प्यास से बेहाल वो एक सरदार जी की दुकान पर गए और पंजाबी में ही पानी मांगा तो सरदार जी ने उन्हें कोसा और इस अंदाज़ में देखा मानो कह रहा हो कि पंजाबी होकर रिक्शा चलाने में उन्हें शर्म आनी चाहिए!
एक ऐसा ही वाकया हुआ जब वे शूटिंग करते-करते पनवाड़ी के पास चले गए सिगरेट खरीदने. पनवाड़ी ने उन्हें ऊपर से नीचे तक घूरा और उनके दिये पाँच रुपये के नोट को अच्छी तरह से चेक किया. सब कुछ देखभाल कर ही उसने बलराज को काफी देर बाद एक सिगरेट का पेकेट दिया. हाल ये था कि शूटिंग के बाद अगर वे अपने मेक अप में ही थक हार कर होटल लौटते थे, तो होटल वाले तक उन्हें धक्के देकर बाहर निकाल देते.
बलराज के इन अनुभवों ने उन्हें यह बताया कि हमारा देश और समाज जाति, अमीर गरीब, गांव शहर-इन तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रसित है जो हमारी मूल इंसानियत तक को खत्म कर देते हैं. शूटिंग के दौरान जब उनके संवाद बोलने और भावहीन चेहरा होने पर सवाल उठने लगे तो उनके अपने मन में भी तमाम तरह की शंकाएं घर करने लगीं. एक अवस्था ऐसी आई जब वे बिलकुल अभिनय नहीं कर पा रहे थे. इस दौरान बिमल रॉय ने क्षुब्ध होकर उस दिन की शूटिंग खत्म कर दी.
बलराज का सिर दर्द से भनभना रहा था और मन में एक ही चिंता- कि इस किरदार को वे किस अभिनेता की तरह निभाएँ कि ज़्यादा प्रभावशाली हो सकें- दिलीप कुमार या अशोक कुमार? मन में कहीं ये हीन भावना भी थी ही कि इस रोल को अशोक कुमार, जयराज और भारत भूषण जैसे सफल और वरिष्ठ अभिनेता भी करना चाहते थे. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि इस रोल को कैसे निभाया जाए. तभी उनके पास एक हाथ रिक्शा वाला आया जो दूर से उनकी शूटिंग वगेरह देख रहा था. इस अधेड़ और बीमार से लगने वाले रिक्शा वाले ने उनसे पूछा कि आखिर माजरा क्या है- उसके रिक्शे पर बैठते हुये बलराज ने फिल्म और इसकी कहानी के बारे मे बताया. कहानी जान कर रिक्शा वाले ने तुरंत कहा- अरे तो मैं भी कोलकाता इसी लिए आया हूं, ना! मुझे भी अपनी ज़मीन छुड़वानी है.“ बलराज अवाक रह गए. शंभू महतो के उनके किरदार और इस रिक्शे वाले की कहानी में सिर्फ इतना ही फर्क था कि ये रिक्शावाला पिछले पंद्रह सालों से शहर में मेहनत कर रहा था सिर्फ इस उम्मीद पर कि किसी न किसी दिन उसके पास अपनी ज़मीन को कर्जे से मुक्त कराने लायक पैसा हो ही जाएगा! “ये तो मेरी कहानी है बाबू! ये तो मेरी कहानी है!” वो रिक्शा वाला एक लंबी उंसांस भर कर ये कहते हुये चला गया और बलराज को आखिरकार समझ आ गया अभिनय का सार तत्व- उन्हें अभिनय के तमाम सिद्धांतों को ताक पर रख कर इस मासूम किसान की कहानी कहनी थी जिसने अपनी ज़मीन को आज़ाद करवाने की उम्मीद में एक ज़िंदगी गुज़ार दी.
यही वो मुकाम था जहां से हिन्दी फिल्मों में न्यू वेव सिनेमा की शुरुआत होती है, और आधुनिक अभिनय सिद्धान्त की भी जिसे ‘मेथड एक्टिंग’ कहा जाता है. एक बातचीत में परीक्षित साहनी ने बताया था कि उनके पिता अपने किरदार को बहुत गंभीरता से लेते थे क्योंकि एक किरदार अपने निजी अनुभवों के साथ साथ सामाजिक आग्रहों, पूर्वाग्रहों को भी अपनी शख्सियत में संभाले रहता है.
इस मुलाक़ात के बाद बलराज के सभी संशय जाते रहे और उन्होने एकाग्रता से फिल्म की शूटिंग पूरी की. फिल्म ना सिर्फ सफल हुई बल्कि इसने बिमल रॉय को देश के चुनिन्दा योग्य और सफल निर्देशकों की कतार में ला खड़ा किया. लेकिन बलराज साहनी तो आखिर बलराज थे- ‘दो बीघा ज़मीन’ की रिलीज़ के छह महीने बाद तक उन्हें एक बार फिर कोई रोल नहीं मिला. अभिनेता के तौर पर वे फिर निकल गए एक नए मुकाम की तलाश में.