हरियाणा के करनाल में राइस मिल की तीन मंजिला इमारत गिरने का मामला सामने आया है, जिसमें कई मजदूरों की मौत हाे गई है. तो वहीं कई मजदूर घायल हैं. इससे पहले संभल में आलू कोल्ड स्टोरेज की बिल्डिंग गिर गई थी, जिसके नीचे दबने से कई मजदूरों की मौत हो गई थी. वहीं इससे पहले भी फैक्ट्रियों के गिरने के कई मामले सामने आ चुके हैं, जिसमें कई मजदूरों की माैत और घायल होने के मामले रिपोर्ट होते रहे हैं. ऐसी घटनाएं मीडिया की सुर्खियां जिस तेजी से बनती हैं उसी तेजी से गायब हो जाती हैं. असल सवाल पीछे रह जाते हैं, जिसमें से कुछ सवाल प्रमुख हैं, जैसे कि आखिरी इन फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर आते कहांं से हैं, क्या ऐसे मजदूरों को कोई सामाजिक अधिकार मिले हैं, ऐसी घटनाओं के बाद क्या कोई मुआवाजा दिए जाने का प्रवाधान है.
खैर, ये प्रमुख सवाल हैं, जिनका उठना लाजिमी हैं, लेकिन, इन सवालों के जवाबों को एक लाइन में पिरोया जाया तो कहा जा सकता है, 'खेती में घटती आय से बढ़ रहे हैं प्रवासी मजदूर, सामाजिक सुरक्षा पर कैसा माैन '
'भारत गांवों का देश है. यहां की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है'... ये कालजयी लाइनें कई दशकों से कहीं जा रही हैं और संभवत: कई दशकों तक कहीं जाएंगी, लेकिन हकीकत इसके उलट है. जिसकी तस्दीक सरकारी आंकड़ें भी करते हैं. सरकारी आंकड़ों का सार ये है कि भारत में छोटी जोत (कम जमीन) वाले किसानोंं की संख्या 80 फीसदी से अधिक है. वहीं बीत कुछ दशकों में छोटी जाेत करने वाले किसानों के लिए खेती करना मुश्किल हुआ है. कुल मिलाकर खेती से होने वाली शुद्ध आय में कमी आई तो अन्य खर्च बढ़े हैं. इस नुकसान से प्रवासी मजदूर जन्म लेते हैं, जो अपने राज्य में सीजन में तो खेती करते हैं या अपने खेतों को ठेके पर देते हैं और खुद दूसरे राज्यों में रहकर प्रवासी मजदूर की तरह पैसे कमा रहे हैं, जिससे उनका जीवनयापन हो सके.
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आजादी के बढ़ते क्रम में विकास का विक्रेंद्रीकरण हुआ है, लेकिन अभी भी बड़े शहरों में ही कई तरह की सुविधाएं सीमित हैं.बड़े शहरों में उद्योग-कारखाने संचालित हो रहे हैं, ऐसे में छोटी जोत के किसान प्रवासी मजदूर के तौर पर फैक्ट्र्रियों में काम करने के लिए शहर आते हैं. सीटू दिल्ली राज्य कमेटी के महामंत्री अनुराग सक्सेना बताते हैं कि फैक्ट्रियों में प्रवासी मजदूरों का सबसे अधिक शिकार होता है. इन्हें सस्ती लेबर कहा जाता है. इसके पीछे का कारण बताते हुए वह कहते हैं कि बेरोजगारी दर अधिक है. फैक्ट्रियों में कानून का उल्लघंन होने पर भी प्रवासी मजदूरों को मजबूरी में काम करना पड़ता है.
भारतीय मजदूर संघ दिल्ली प्रांत के महामंत्री दीपेंद्र चाहर बताते हैं कि मजदूराें के हितों के सरंक्षण के लिए कानून तो बना है, लेकिन. जिसके तहत 10 से अधिक मजदूर संख्या होने पर कारखाना एक्ट में रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है. जिसमें मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा का कानून है, लेकिन फैक्ट्री मालिक कारखाना एक्ट में आना ही नहीं चाहते हैं. वह प्रवासी मजदूरों को बिना पंजीकृत कराए ही काम करते हैं. ऐसे में प्रवासी मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल पाती है. चाहर कहते हैं कि प्रवासी मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए राज्य सरकारें मौन हैं. जिस पर फैसला लेना चाहिए.
सीटू दिल्ली राज्य कमेटी के महामंत्री अनुराग सक्सेना कहते हैं कि प्रवासी मजदूरों के हितों को ध्यान में रखते हुए प्रवासी मजदूर एक्ट 1979 बना हुआ है. उसमें प्रवासी मजदूरों के हितों को ध्यान में रखते हुए प्रावधान किया गया है. जिसके तहत जिस भी जिले से प्रवासी मजदूर आए हैं और जिस भी जिले में प्रवासी मजदूर काम पर गए हैं. दोनों जिलों के जिलाधिकारी प्रवासी मजदूरों का रिकाॅर्ड अपने पास रखेंगे और उनके लिए लेबर कानून का पालन सुनिश्चित करवाएंगे, लेकिन कानून होने के बाद भी इनका पालन नहीं होता है. ऐसे में प्रवासी मजदूरों को शोषण अधिक होता है.
सीटू दिल्ली राज्य कमेटी के महामंत्री अनुराग सक्सेना बताते हैं कि फैक्ट्रियों में होने वाले हादसे में जान देने और घायल मजदूरों को मुआवजा देने का प्रवाधान है. जिसके तहत उम्र और नौकरी में समय को देखकर मुआवजा का फार्मूला तैयार किया जाता है. ऐसे में जरूरी है कि हादसे होने पर जो भी पुलिस एफआईआर दर्ज करती है, उसमें आवश्यक रूप से जान देने वाले और घायल मजदूरों का नाम हो.