खरीफनामा: मिट्टी की उर्वरक क्षमता को बढ़ाने, कीटों, बीमारियों से पौधों को होने वाले नुकसान से बचाने का एकमात्र तत्काल व प्रभावी उपाय केवल रासायनिक खाद और दवाएं हैं, लेकिन रासायनिक खादों का ज्यादा प्रयोग फायदे से अधिक नुकसान करता है. मसलन, रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग से मिट्टी और उपज की गुणवत्ता के साथ ही पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है. वहीं दूसरी ओर इससे पौध सुरक्षा पर किसानों की लागत भी बढ़ती है. इन सभी समस्याओं का एक समाधान बायोपेस्टीसाइड यानी जैव रसायन का इस्तेमाल है. किसान तक की सीरीज खरीफनामा की इस कड़ी में बायोपेस्टीसाइड पर पूरी रिपोर्ट...
किसान तक की सीरीज खरीफनामा की इस कड़ी में जानेंगे, किसान कैसे विभिन्न रोगों और कीटों के नियंत्रण के लिए कौन से बायो पेस्टीसाइड का प्रयोग कर सकते हैं.
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, अयोध्या के अधीन संचालित कृषि विज्ञान केन्द्र कोटवा आजमगढ़ के पौध सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ रुद्र प्रताप सिंह ने किसान तक से बातचीत में बताया कि बायो पेस्टीसाइड का मनुष्य, मिट्टी, पैदावार और पर्यावरण पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है और फसल के दुश्मन कीटों तथा बीमारियों से भी कारगर रोकथाम हो जाती है. उन्होंने बताया कि सब्जियों और फसलों में लगने वाले चने के फली छेदक और तम्बाकू की सूंडी कीट की रोकथाम के लिए एनपीवी (वायरस) का प्रयोग करना चाहिए. एनपीवी 250 एलई (लार्वी समतुल्य) का छिड़काव प्रति हेक्टेयर की दर से फसल पर आवश्यक पानी की मात्रा के साथ सायंकाल के दौरान करना चाहिए. फेरोमोन ट्रेप का प्रयोग कर कीट की स्थिति का आंकलन करने के पश्चात इस वायरस का छिड़काव फसलों में करना चाहिए.
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एनपीवी के छिड़काव के उपरांत इल्लियां पत्तियों को खाती हैं और यह विषाणु उनके पेट में चला जाता है तथा संक्रमण कर देता है. शुरुआती दौर में इल्लियां सुस्त हो जाती हैं तथा खाना छोड़ देती हैं. धीरे-धीरे इनका रंग भी बदलने लगता है. पहले हल्का पीले रंग तथा बाद में काले रंग में बदल जाती हैं. अन्त में इल्लियां पौधों की शाखाओं पर उल्टी लटक कर मर जाती हैं. एनपीवी का प्रयोग कपास, फूलगोभी, टमाटर, मिर्च, भिंडी, मटर, मूंगफली, सूरजमुखी, चना, मोटे अनाज, तम्बाकू और विभिन्न फलों में हानि पहुंचाने वाली इल्लियों को मारने में किया जाता है. यह बाजार में हेलीसाइड, बायोवायरस एच, बायोवायरस एस, हेलियोसेल, स्पोडोसाइड आदि नामों से उपलब्ध है.
किसान तक से बातचीत में डॉ सिंह ने कहा कि ब्यूवेरिया बेसियाना एक प्रकार का फफूंद-आधारित जैविक कीटनाशक है. यह विभिन्न फसलों में रस चूसक कीट, दीमक, पत्ती लपेटक और व्हाइट फ्लाइज जैसे कीटों को नियंत्रण करने में अत्यधिक प्रभावी होता है. यह फफूंद कीट की विभिन्न अवस्थाओं अंडा, शिशु, प्यूपा व वयस्क सब पर कारगर होता है. फफूंद के संक्रमण से कीटों में सफेद मस्करडाइन नामक रोग हो जाता है, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है. कीटों के नियंत्रण के लिए मिट्टी को उपचारित करने के लिए जुताई के बाद खेत तैयार करते समय इसकी 1 किलोग्राम मात्रा को 25 से 30 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर प्रति एकड़ की दर से प्रयोग किया जाता है. इसके अलावा खड़ी फसलों में कीटों की रोकथाम के लिए छिड़काव 5 ग्राम प्रति लीटर पानी अथवा 4-5 किग्रा मात्रा आवश्यक पानी की मात्रा में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव किया जा सकता है. यह फफूंद अधिक आद्रता और कम तापक्रम पर अधिक प्रभावी होता है.
किसान तक से बातचीत में डॉ सिंह ने कहा कि स्यूडोमोनास एक जीवाणु आधारित बायो पेस्टीसाइड है. फसलों में लगने वाले विभिन्न रोगों जैसे जड़ और तना सड़न, गन्ने की लाल सड़न, जीवाणु झुलसा आदि के नियंत्रण के लिए बहुत ही प्रभावी है. यह मुख्य रूप से बीज उपचार और विभिन्न पौधों की बीमारियों के नियंत्रण में प्रयोग किया जाता है. स्यूडोमोनास से बीजों को उपचारित करने के लिए इसकी 10 ग्राम मात्रा को 15 से 20 मिली लीटर पानी में मिलाकर प्रयोग किया जाता है. तैयार घोल की इतनी मात्रा एक किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त है. उपचारित बीजों को छाया में सूखाकर प्रयोग करना चाहिए. स्यूडोमोनास से पौधों का उपचार करने के लिए इसकी 50 ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर पौधों को 10-15 तक घोल में रख कर छोड़ देना चाहिए. इस घोल का उपयोग पौधो में जड़ गलन और तना सड़न आदि रोगों उपचार हेतु भी किया जाता है. इस दवा के इस्तेमाल के बाद 10 से 15 दिन केमिकल दवाओं का इस्तेमाल नही करना चाहिए.
पौध सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ आरपी सिंह ने बताया कि फफूंद जनित रोगों के रोकथाम के लिए आजकल बाजार में ट्राइकोडर्मा उपलब्ध है. इसकी 4 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा बीज की दर से उपचार करने से फंफूद जनित रोग नहीं होता है. भूमि उपचार के लिये 1 किग्रा ट्राईकोडरमा के पाउडर को 100 किग्रा कम्पोस्ट में मिला कर प्रति एकड़ खेत में प्रयोग से फंफूद जनित रोग से मुक्ति मिलती है. 5 ग्राम ट्राईकोडरमा प्रति ली पानी में मिला कर नर्सरी वाले पौधों को उपचारित करते हैं. 200 ग्राम ट्राईकोडरमा 15-20 ली पानी में घोलकर बोने से पूर्व कटिंग/जड़/गांठ आदि को उपचारित करना चाहिए.
सभी जैव उत्पादों को इस्तेमाल करने में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे 6 माह से ज्यादा पुराने न हों. वहीं फसलों पर इनका छिड़काव शाम के समय ही करना चाहिए, जबकि आवश्यकता पड़ने पर पर इसका इस्तेमाल दोबारा भी 10-15 दिन के अन्तराल पर कर सकते हैं. वहीं जैव उत्पादों का भंडारण छायादार व ठंडे स्थान पर करें. अधिक नमी व कम तापमान पर अच्छा परिणाम प्राप्त होता है. छिडकाव के पूर्व घोल में उपयुक्त स्टीकर मिला लेने पर अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं.