कैसे बंद होगा यूर‍िया का अंधाधुंध इस्तेमाल, पोषक तत्वों से कंगाल हुई धरती, सरकार पर बढ़ा बोझ

कैसे बंद होगा यूर‍िया का अंधाधुंध इस्तेमाल, पोषक तत्वों से कंगाल हुई धरती, सरकार पर बढ़ा बोझ

खेती के ल‍िए नशा बन गई है यूर‍िया. एक तरफ भारत के खेतों में सल्फर, ज‍िंक और बोरोन की भारी कमी. दूसरी ओर, सरकार पर बढ़ रहा सब्स‍िडी का बोझ. कैसे ऑर्गेन‍िक और नेचुरल फार्म‍िंग के नारे के बीच प‍िछले छह साल में ही यूर‍िया की मांग 51.83 लाख मीट्रिक टन बढ़ गई.

क्यों हो रहा है यूर‍िया का अंधाधुंध इस्तेमाल (Photo-NFL). क्यों हो रहा है यूर‍िया का अंधाधुंध इस्तेमाल (Photo-NFL).
ओम प्रकाश
  • New Delhi ,
  • Jun 21, 2023,
  • Updated Jun 21, 2023, 10:03 AM IST

पौधों के व‍िकास के ल‍िए 17 पोषक तत्वों की जरूरत होती है लेक‍िन, हमारे क‍िसान नाइट्रोजन और फास्फोरस पर ही ज्यादा जोर देते रहे हैं. हमारे देश में यूर‍िया का इतना अंधाधुंध इस्तेमाल हुआ है क‍ि एक तरफ जमीन से दूसरे पोषक तत्व खत्म हो रहे हैं और दूसरी ओर सब्स‍िडी का बोझ बढ़ रहा है. क‍िसानों और सरकार दोनों का नुकसान हो रहा है. लेक‍िन इसका बेतहाशा इस्तेमाल रोकने के ल‍िए कोई भी सरकार सख्त कदम नहीं उठा पा रही है. क्योंक‍ि खेती-क‍िसानी में कोई बड़ा बदलाव कब स‍ियासी मुद्दा बनकर सरकार के गले की फांस बन जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है. कृष‍ि वैज्ञान‍िक लगातार यूर‍िया के संतुल‍ित इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसकी अपील कर चुके हैं. लेक‍िन इसका इस्तेमाल घटने की जगह और बढ़ गया है. 

वर्तमान खरीफ सीजन में सरकार ने 1 लाख 8 हजार करोड़ रुपये की उर्वरक सब्स‍िडी देने का एलान क‍िया है. ज‍िसमें से अकेले 70,000 करोड़ रुपये स‍िर्फ यूर‍िया पर खर्च होंगे. रसायन और उर्वरक मंत्रालय की एक र‍िपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2022-23 में 07 फरवरी 2023 तक देश में उर्वरक सब्स‍िडी 1,82,403 करोड़ रुपये हो चुकी थी. ज‍िसमें सबसे अध‍िक 1,15,493 करोड़ रुपये अकेले यूर‍िया की ह‍िस्सेदारी थी. दूसरी ओर, व‍िशेषज्ञों का कहना है क‍ि खेती में स‍िर्फ नाइट्रोजन और फास्फोरस डालने से फसलों की उत्पादकता कम हुई है, क्योंक‍ि दूसरे पोषक तत्वों की ओर लोगों ने ध्यान ही नहीं द‍िया. आख‍िर इसके बावजूद यूर‍िया के इस्तेमाल को लेकर सरकार कोई सख्त कदम क्यों नहीं उठाती?

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क‍ितनी कारगर है सीएसीपी की सलाह

हाल ही में कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) ने अन्य उर्वरकों की तरह, यूरिया को भी पोषक तत्व आधारित सब्सिडी (एनबीएस) के तहत लाने का सुझाव द‍िया है. ताक‍ि कीमतों में समानता हो और यूरिया का अंधाधुंध इस्तेमाल बंद हो सके. दरअसल, यूरिया एनबीएस योजना में शामिल नहीं है. यह मूल्य नियंत्रण के अधीन है. यानी इसका कंट्रोल प्राइस है और उसके तहत एमआरपी आधिकारिक तौर पर पहले से तय होती है. उससे अध‍िक दाम पर इसे नहीं बेचा जा सकता. ऐसा माना जाता है क‍ि यूर‍िया के कम दाम की वजह से ही इसका अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है. दूसरी ओर, एनबीएस योजना के तहत गैर-यूरिया उर्वरकों की एमआरपी नियंत्रण मुक्त है यानी उसका दाम कंपनियों द्वारा तय क‍िया जाता है.

डायरेक्ट सब्स‍िडी से कम हो सकती है खपत

हालांक‍ि, कृष‍ि व‍िशेषज्ञ ब‍िनोद आनंद सीएसीपी की इस स‍िफार‍िश से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है क‍ि अगर यूर‍िया की खपत और उसकी सब्स‍िडी कम करनी है तो सब्स‍िडी की पूरी र‍कम रकबे के ह‍िसाब से क‍िसानों के बैंक अकाउंट में डाल द‍िया जाए. क‍िसानों को यूर‍िया उसके पूरे दाम पर खरीदने द‍िया जाए. इससे दो काम होगा. क‍िसान यूर‍िया का इस्तेमाल कम कर देंगे और उसका गैर कृष‍ि कार्यों में इस्तेमाल भी बंद हो जाएगा. यूर‍िया का 45 क‍िलो का बैग स‍िर्फ 267 रुपये का म‍िलता है इसल‍िए इसका जमकर औद्योग‍िक इस्तेमाल होता है. केंद्र सरकार सब्स‍िडी की रकम खाद बनाने वाली कंपन‍ियों को देती है न क‍ि क‍िसानों को. यह सब्स‍िडी देश की 183 कंपन‍ियों को म‍िलती है. इसल‍िए इन कंपन‍ियों की लॉबी डायरेक्ट उर्वरक सब्स‍िडी पर कुछ होने नहीं देना चाहती.  

गैर कृष‍ि कार्यों में इस्तेमाल

इस बात की तस्दीक करती हुई रसायन और उर्वरक मंत्रालय की एक र‍िपोर्ट आई है. प‍िछले छह महीने में ही यूरिया के डायवर्जन को लेकर 30 एफआईआर दर्ज की गई हैं. जिस कार्य के लिए यूरिया दी जाती है उस काम में उसका इस्तेमाल न करके दूसरे कार्यों में उपयोग हो रहा है. ज‍िसमें बताया गया है क‍ि कृषि के अलावा, यूरिया का उपयोग कई अन्य उद्योगों, जैसे- यूएफ राल, गोंद, प्लाईवुड, राल, क्रॉकरी, मोल्डिंग पाउडर, मवेशी चारा, डेयरी और औद्योगिक खनन विस्फोटक में भी किया जाता है. किसानों और कृषि के लिए दिए जाने वाले इस अत्यधिक सब्सिडी वाले यूरिया का अवैध उपयोग कई निजी संस्थाओं द्वारा गैर-कृषि और औद्योगिक उद्देश्य के लिए किया जाता है. जिसके कारण किसानों के लिए यूरिया की कमी हो जाती है. 

नहीं रुका यूर‍िया का अंधाधुंध इस्तेमाल 

ऐसे में सवाल यह है क‍ि क्या केंद्र सरकार पोषक तत्वों के उपयोग में असंतुलन के साइड इफेक्ट से अनजान है? ऐसा ब‍िल्कुल नहीं है. दरअसल, कुछ लोगों को लगता है क‍ि अगर यूर‍िया का दाम बढ़ा द‍िया जाए तो इस्तेमाल कम हो सकता है. लेक‍िन ऐसा करना क‍िसी भी सरकार के ल‍िए आसान नहीं है क्योंक‍ि यह एक बड़ा स‍ियासी मुद्दा बन सकता है. ऐसे में सरकार ने इसके इस्तेमाल में कमी लाने के ल‍िए नीम-कोटिंग और स्वायल हेल्थ कार्ड का रास्ता चुना ताक‍ि उसकी र‍िपोर्ट के आधार पर पोषक तत्वों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल को बढ़ावा म‍िले. लेक‍िन ये दोनों योजनाएं यूर‍िया का अंधाधुंध इस्तेमाल रोकने में विफल रही हैं. 

नीम कोटेड यूर‍िया 2015 में मार्केट में आई. सामान्य यूरिया के मुकाबले नीम कोटेड यूरिया से भूमिगत प्रदूषण कम होता है. लेक‍िन आपको यह जानकार हैरानी होगी कि नीम कोटेड यूर‍िया पर आईएआरआई पूसा का र‍िसर्च पेपर 1971 में ही आ चुका था. तब से क‍ितनी सरकारें आईं और गईं लेक‍िन क‍िसी ने इस पर ध्यान नहीं द‍िया.

धरती में पोषक तत्वों की क‍ितनी कमी 

कुछ व‍िशेषज्ञों का कहना है क‍ि अन्य उर्वरकों की तुलना में यूरिया की अत्यधिक कम कीमत की वजह से इसका ज्यादा उपयोग हुआ है और कुछ महत्वपूर्ण सूक्ष्म और पोषक तत्व का अपर्याप्त उपयोग हुआ है. पूसा में एग्रोनॉमी ड‍िवीजन के प्र‍िंस‍िपल साइंट‍िस्ट डॉ. वाईएस श‍िवे का कहना है क‍ि इस वक्त भारत की 42 फीसदी जमीन में सल्फर की कमी है. ज‍िंक की 39 फीसदी कमी है जबक‍ि बोरॉन 23 फीसदी कम है. ऐसे में माइक्रो न्यूट्र‍िएंट पर भी सब्स‍िडी दे दी जाए तो उसका इस्तेमाल भी बढ़ सकता है. 

पूसा के सीन‍ियर साइंट‍िस्ट डॉ. आरएस बाना कहते हैं क‍ि दुर्भाग्य से हम नाइट्रोजन और फास्फोरस का ही इस्तेमाल ज्यादा कर रहे हैं. इससे उत्पादन पर बुरा असर पड़ रहा है. क‍िसानों को जब भी उत्पादन कम लगता है तो वो खेत में और नाइट्रोजन यानी यूर‍िया झोंक देते हैं. एक तरह से जमीन को यूर‍िया का नशा दे द‍िया है.   

माइक्रो न्यूट्र‍िएंट की कमी से क्या है नुकसान 

साउथ एश‍िया ज‍िंक न्यूट्रिएंट इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर डॉ. सौम‍ित्र दास का कहना है क‍ि रासायन‍िक खादों के इस्तेमाल के असंतुलन ने जमीन में पोषक तत्वों की कमी कर दी है. इस समय देश में सालाना 12 से 13 लाख टन ज‍िंक की आवश्यकता है जबक‍ि 2 लाख टन का ही इस्तेमाल हो रहा है. इसकी जगह पर नाइट्रोजन का इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है, जो ठीक नहीं है. इसका क्या असर पड़ रहा है. इसका जवाब भारत सरकार के प्रधान वैज्ञान‍िक सलाहकार कार्यालय में कार्यरत वर‍िष्ठ कृष‍ि वैज्ञान‍िक डॉ. एम मोहंती ने द‍िया है. उन्होंने कहा क‍ि अगर जमीन में क‍िसी भी माइक्रो न्यूट्र‍िएंट की कमी है तो उसकी कमी कृष‍ि उपज में भी आएगी. उत्पाद की गुणवत्ता खराब होगी. 

यूर‍िया का साइड इफेक्ट  

नेशनल सेंटर फॉर ब्लू ग्रीन एल्गी के प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉ. युद्धवीर सिंह के मुताबिक भारत में यूरिया का इस्तेमाल 1940 के आसपास ही शुरू हो गया था. लेकिन देश को कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए जब 1965-66 में हरित क्रांति की शुरुआत हुई तब इसके इस्तेमाल में तेजी आई. किसानों ने जमीन में किसी भी पोषक तत्व की कमी को पूरा करने के लिए यूरिया का ही इस्तेमाल शुरू कर दिया.

डॉ. स‍िंह कहते हैं क‍ि इसका सबसे ज्यादा साइड इफेक्ट आर्गेनिक कार्बन पर पड़ा. जो सारे पोषक तत्वों का सोर्स होता है. इनकी कमी से पौधे का विकास रुक जाता है और उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है. हरित क्रांति से पहले इंडो-गंगेटिक प्लेन में औसत आर्गेनिक कार्बन 0.5 फीसदी हुआ करता था जो अब घटकर 0.2 फीसदी रह गया है. यह और घटा तो किसानों का काफी नुकसान होगा. जमीन बंजर होने लगेगी. 

क‍ितनी बढ़ी खपत

यूर‍िया की खपत क‍ितनी तेजी से बढ़ रही है इसका एक‍ उदाहरण देख‍िए. साल 1980 में देश में सिर्फ 60 लाख टन यूरिया की खपत थी. लेकिन इसकी मांग 2021-22 में बढ़ कर 3.4 करोड़ टन तक जा पहुंची है. प‍िछले छह साल में ही यूर‍िया की मांग 51.83 लाख मीट्रिक टन बढ़ गई है. यह तो तब है जब हम ऑर्गेन‍िक और नेचुरल फार्म‍िंग का नारा लगा रहे हैं. रसायन एवं उवर्रक मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक 2016-17 में यूरिया की मांग 289.9 लाख मिट्रिक टन थी, जो 2021-22 में 341.73 एलएमटी हो गई है. अब धरती की सेहत और सरकार पर बढ़ते सब्स‍िडी के बोझ को देखते हुए इस रफ्तार को रोकने की जरूरत है. 

यूर‍िया के अध‍िक इस्तेमाल का र‍िकॉर्ड

जरूरत से अध‍िक यूर‍िया के इस्तेमाल की बात चली है तो इंडियन नाइट्रोजन ग्रुप का ज‍िक्र जरूरी हो जाता है. अमेरिका और यूरोपीय यून‍ियन के बाद भारत तीसरा ऐसा देश है जिसने अपने यहां नाइट्रोजन का पर्यावरण पर प्रभाव का आकलन किया है. ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में नाइट्रोजन प्रदूषण का मुख्य स्रोत कृषि है. पिछले पांच दशक में हर भारतीय किसान ने औसतन 6,000 किलो से अधिक यूरिया का इस्तेमाल किया. 

पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक जमीन में नाइट्रोजन युक्त यूरिया के बहुत अधिक मात्रा में अप्राकृत‍िक रूप से घुलने पर म‍िट्टी की कार्बन मात्रा कम हो जाती है. यूरिया के अंधाधुंध इस्तेमाल की वजह से ही पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के भूजल में नाइट्रेट की मौजूदगी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से बहुत अधिक म‍िली है. हरियाणा में यह सर्वाधिक 99.5 माइक्रोग्राम प्रति लीटर है. जबकि डब्ल्यूएचओ का निर्धारित मानक 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर है. नाइट्रेट पानी को विषाक्त बना रहा है. भोजन अथवा जल में नाइट्रेट की ज्यादा मात्रा कैंसर उत्पन्न करने में सहायक मानी जाती है. 

क्या क‍िसान हैं दोषी

सवाल यह है क‍ि क्या यूर‍िया के बेहताशा इस्तेमाल के ल‍िए स‍िर्फ क‍िसान दोषी हैं? दरअसल, क‍िसानों को कभी बताया ही नहीं गया क‍ि उन्हें खेती में यूर‍िया और कीटनाशकों का क‍ितना इस्तेमाल करना है. राज्यों का एक्सटेंशन स‍िस्टम ध्वस्त हो चुका है. वो क‍िसानों तक पहुंचता ही नहीं है. खाद और कीटनाशक बेचने वाली कंपन‍ियों को स‍िर्फ अपने मुनाफा से मतलब है. ऐसे में जब तक ग्राउंड पर जाकर क‍िसानों को यूर‍िया के अत्यध‍िक इस्तेमाल और जमीन में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से होने वाले नुकसानके बारे में नहीं बताया जाएगा, तब इस द‍िशा में कामयाबी म‍िलना आसान नहीं है.

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