धान की पराली जलाने के आरोपी पंजाब और हरियाणा के धान के गढ़ों में किसानों ने ICAR की आईएआरआई विंग द्वारा लॉन्च किए गए पूसा बायो-डीकंपोजर में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है. यह डीकंपोजर प्राकृतिक रूप से पराली को खत्म करता है और खाद के रूप में काम करता है. इस बारे में पंजाब और हरियाणा में धान किसानों के एक वर्ग से बात की गई, जिन्होंने या तो बायो-डीकंपोजर के बारे में अनभिज्ञता जाहिर की या यहां तक दावा किया कि उन्हें धान की पराली मशीनें उपलब्ध कराने का दावा कागजों पर ही है.
चंडीगढ़ के सेक्टर 39 अनाज बाजार में 'इंडिया टुडे' से बात करते हुए मोहाली के धान किसान साधु सिंह ने कहा, "हमें इस तकनीक के बारे में कोई जानकारी नहीं है और न ही किसी अधिकारी ने इसे (पूसा बायो-डीकंपोजर) अपनाने के लिए हमसे संपर्क किया है. हम आम तौर पर इसका उपयोग मवेशियों के चारे के रूप में करते हैं."
रामगढ़ मंडा निवासी जगतार सिंह ने भी बायो-डीकंपोजर के बारे में अनभिज्ञता जाहिर करते हुए कहा, "हमारे गांव में कोई भी हमें स्प्रे और इसके फायदों के बारे में बताने नहीं आया. हमने इस स्प्रे को अपने इलाके में किसी भी किसान सोसायटी में बिकते हुए नहीं देखा है." उन्होंने कहा कि उनके गांव के धान किसान एक निजी फर्म को बेचने के लिए धान के बेलर बना रहे हैं. जगतार सिंह कहते हैं, "कौन सी मशीनें? हमें भाड़े पर मशीनें लानी होती हैं जिसके लिए हमें पैसे देने होंगे."
मोहाली के एक अन्य किसान गुर सिंह, जो छपार चिड़ी क्षेत्र के रहने वाले हैं, ने भी कहा कि उन्हें बायो-डीकंपोजर के बारे में कोई जानकारी नहीं है. दिल्ली के विपरीत, पंजाब के किसानों को मुफ्त बायो-डीकंपोजर स्प्रे की सुविधा नहीं मिलती है. नई दिल्ली में AAP के नेतृत्व वाली सरकार ने हाल ही में घोषणा की कि वह किसानों के लिए 5000 एकड़ धान के खेतों में मुफ्त बायो-डीकंपोजर स्प्रे सुविधा की व्यवस्था करेगी. सरकार ने इससे पहले 2022 और 2020 में क्रमशः 4300 और 1935 एकड़ धान के खेतों को कवर किया था.
दिलचस्प बात यह है कि पंजाब में AAP सरकार ने अब तक किसानों को मुफ्त बायो-डीकंपोजर की पेशकश नहीं की है. 'इंडिया टुडे' से बात करते हुए आप के मुख्य प्रवक्ता मलविंदर सिंह कांग ने कहा कि मिट्टी के प्रकार में अंतर के कारण पंजाब में बायो-डीकंपोजर काम नहीं करता है.
कांग कहते हैं, "नई दिल्ली और पंजाब में मिट्टी का प्रकार अलग-अलग है. पंजाब में किसानों को बायो-डीकंपोजर के जो परिणाम मिलने की उम्मीद थी, वे अच्छे नहीं रहे. डीकंपोजर में अधिक समय लगने के कारण फसल की बुआई में देरी हो रही है. इससे मलविंदर सिंह कांग ने कहा, ''पंजाब में विधि (बायो डीकंपोजर) सफल नहीं रही.'' आप प्रवक्ता ने कहा कि पंजाब सरकार पराली जलाने पर काबू पाने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल कर रही है.
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कांग कहते हैं, "हमने चावल की देर से पकने वाली किस्म पूसा-44 पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिससे अगली फसल बोने का समय और कम हो गया है. हमने कुछ औद्योगिक इकाइयां लगाई हैं जो किसानों से पराली खरीद रही हैं. किसान धान की पराली को जलाना नहीं चाहते हैं, लेकिन यह एक मजबूरी बन जाती है क्योंकि उनके पास इससे छुटकारा पाने के लिए कोई वैकल्पिक तरीका नहीं है. हम किसानों को विकल्प देने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उनकी आय को बढ़ावा मिले.'' कांग ने कहा कि सरकार किसानों को हैप्पी सीडर मशीनें भी उपलब्ध करा रही है. 80 परसेंट सब्सिडी पर. उन्होंने कहा कि ये मशीनें सहकारी समितियों के माध्यम से भी निःशुल्क उपलब्ध हैं.
पंजाब के विपरीत, पड़ोसी राज्य हरियाणा सरकार किसानों को मुफ्त बायो-डीकंपोजर सुविधा दे रही है, लेकिन परिणाम किसानों की उम्मीदों के अनुरूप नहीं हैं. "पराली प्रबंधन सबसे अच्छा प्रयास है जिसके तहत हम खेत में ही पराली का निपटान करते हैं. हरियाणा सरकार किसानों को मुफ्त में डी-कंपोजर उपलब्ध करा रही है. हालांकि, किसानों को एक समस्या का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि डी-कंपोजर पराली को प्राकृतिक रूप से निपटाने के लिए 35-45 दिन का समय लेता है. बायो डीकंपोजर के लिए व्यापक शोध की जरूरत है और इसकी अवधि कम की जानी चाहिए. तभी किसानों और पर्यावरण को फायदा होगा,'' निर्मल सिंह कहते हैं.
जब उनसे सवाल किया गया कि क्या जैव-डीकंपोजर नाकाम हो गए हैं, तो अधिकारी ने कहा, "मैं इसका कोई अचानक जवाब नहीं दे सकता कि यह सफल है या नहीं, लेकिन पराली खत्म करने में अधिक समय लग रहा है. किसान लगने वाले समय की अवधि से संतुष्ट नहीं हैं."
'इंडिया टुडे' से बात करते हुए आईसीएआर के अधिकारियों ने पूसा बायो-डीकंपोजर के फायदों के बारे में बताते हुए कहा कि पराली डीकंपोजिशन अवधि को छोटा करने के प्रयास जारी हैं.
"जहां तक पंजाब के संबंध में बायो-डीकंपोजर के असर का सवाल है, किसानों को गेहूं की फसल बोने के लिए केवल 20 से 30 दिनों की अवधि मिलती है. हम पंजाब और हरियाणा में 60 कृषि विज्ञान केंद्र और कृषि विश्वविद्यालयों के माध्यम से किसानों को बता रहे हैं और डीकंपोजर पर कई परीक्षण किए गए हैं. जहां तक पंजाब और हरियाणा का मामला है, किसानों की आवश्यकता के अनुसार पूसा डीकंपोजर का पैटर्न और परिणाम उपलब्ध नहीं है." कृषि प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग अनुसंधान संस्थान (एटीएआरआई), आईसीएआर, लुधियाना के निदेशक डॉ. परवेंदर श्योराण ने कहा.
डॉ. परवेंदर श्योराण ने कहा कि पूसा बायो-डीकंपोजर को बेहतर बनाने का प्रयास किया जा रहा है ताकि यह 25 से 30 दिनों के भीतर पराली को खत्म कर दे. श्योराण ने कहा, "मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि नई दिल्ली में आईएआरआई केंद्र ने पहले ही पूसा डी-कंपोजर पर शोध किया है. प्रयास पहले से ही जारी हैं. शोध चल रहा है ताकि डीकंपोजर तेजी से काम करे. हमें उम्मीद है कि यह जल्द ही हासिल किया जाएगा." डॉ. परवेंदर श्योराण ने आगे कहा कि पूसा बायो-डीकंपोजर के विफल होने का एक और कारण यह था कि किसान पराली को खत्म करने के लिए नमी के स्तर और तापमान को बनाए रखने में नाकाम रहा जो कि सबसे जरूरी था.
एक अनुमान के मुताबिक पंजाब के किसान 75 लाख एकड़ क्षेत्र में धान उगाते हैं जिससे हर साल 22 लाख टन पराली पैदा होती है. राज्य सरकार का दावा है कि इस पराली का 60 परसेंट हिस्सा, जो 12 मिलियन टन निकलता है, का प्रबंधन अलग-अलग तरीकों से किया जाता है. पंजाब के किसान हर साल अनुमानित 10 मिलियन टन पराली जलाते हैं जिससे पर्यावरण को भारी क्षति हो रही है.
पड़ोसी राज्य हरियाणा सरकार ने भी दावा किया है कि सरकार 23 फीसदी पराली का प्रबंधन एक्स-सिटू के जरिए कर रही है. हरियाणा में कम से कम दो दर्जन औद्योगिक इकाइयां ईंधन के रूप में पेडस्टल का उपयोग कर रही हैं. राज्य सरकार के कार्यालयों का दावा है कि 34 पराली पराली का उपयोग चारे के रूप में किया जा रहा है और 43 पराली का प्रबंधन अलग-अलग तरीकों से किया जा रहा है. राज्य सरकारें किसानों को बायो-डीकंपोजर के फायदों के बारे में जागरूक करके पर्यावरण को बचा सकती हैं और किसानों को धान की पराली जलाने से रोक सकती हैं.