
अब धान की पराली नहीं जलानी होगी. वहीं पराली नहीं जलने से इस सीजन के सबसे बड़े संकट वायु प्रदूषण का भी खतरा कम हो जाएगा. दरअसल, पराली समय के साथ खेत में अपघटित होकर लगाई गई फसल के लिए कंपोस्ट खाद का काम करेगी. इसके अलावा डीजल, सिंचाई, बीज और मजदूरी की भी बचत होगी. बोई जाने वाली फसल को महंगे उर्वरकों का अधिकतम प्राप्त होगा. उधर, भरपूर नमी की दशा में बोआई के नाते बेहतर जमता और होनहार पौधे. इसके साथ पौधों के लाइन से होने के नाते फसल संरक्षा (कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण) में आसानी. नतीजन उपज भी परंपरागत (छिटकवा) विधा से अधिक और पर्यावरण का भी संरक्षण. बता दें कि अक्तूबर से लेकर 15 दिसंबर तक रबी सीजन माना जाता है. वहीं उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में गेहूं मुख्य फसल है.
अगर बोआई के किसी एक विधा से आपको ये सारे लाभ हों तो इसे कमाल ही कहेंगे? इस कमाल को अंजाम देने वाले कृषि यंत्रों के नाम हैं, 'जीरो फर्टी सीड, जीरी सीड ड्रिल, हैप्पी सीडर इससे खेत में मौजूद नमी के सहारे बिना जोताई के भी गेहूं की बोआई संभव है. योगी सरकार इन कृषि यंत्रों पर अनुदान भी दे रही है. साथ ही किसानों को लगातार को किसान रथ के जरिए लगातार इस बाबत जागरूक भी कर रही है. यही नहीं खेत में ही पराली के डीकंपोजिंग के लिए भी डीकंपोजर भी उपलब्ध करा रही. पराली को एक जगह इकट्ठा करने वाले स्ट्रारीपर, बेलर, फोरेज हार्वेस्टर जैसे कृषि यंत्रों पर भी सरकार अनुदान देती है.
वहीं शासन स्तर पर भी सभी जिलों के प्रशासन को किसान पराली न जला सकें इस बाबत निर्देश दिए जा चुके है. इसके लिए नोडल अधिकारी भी बनाए गए हैं. संयोग से इस साल हाल ही में एक बड़े क्षेत्र में ठीक ठाक बारिश भी हुई है. धान की अधिकांश फसल भी कट चुकी है. ऐसे में इन कृषि यंत्रों की मदद से किसान बिना जोते ही गेहूं की बोआई कर सकते हैं. या पराली एकत्र कर उसे डीकंपोज कर उसकी कम्पोस्टिंग भी कर सकते हैं.
धान और गेंहूं के फसल चक्र वाले क्षेत्र के लिए ये विधा खास उपयोगी है. चूंकि इसमें धान के खेत में नमी के सहारे ही बोआई की जाती है. ऐसे में खेत की तैयारी में लगने वाला करीब दो हफ्ते का समय बचता है. समय से बोआई का लाभ बढ़ी उपज के रूप में मिलता है.
बिना जोते,बोआई करने वाले इन सभी कृषि यंत्रों में फाल की जगह दांते लगे होते हैं. बोआई के समय ये दांते मानक गहराई तक मिट्टी को चीरते हैं. मशीन के अलग-अलग चोंगे मे रखा खाद-बीज इसमें गिरता है. अब तो ऐसी भी मशीनें आ गईं हैं जो साथ में हल्की जोताई भी करती चलती हैं.
मशीन के प्रयोग के पूर्व कुछ सावधानियां अपेक्षित हैं. खेत से खर-पतवार व पुआल की सफाई कर लें. ऐसा न होने पर ये मशीन के दांते में फंसते हैं. अगर खेत मे नमी कम है तो बुआई के पूर्व हल्का पाटा लगा दें. बेहतर है कि कटाई के चंद दिन पूर्व धान के खेत की हल्की सिंचाई कर लें. बोआई के समय सिर्फ दानेदार उर्वरकों का ही प्रयोग करें.
सीआइएमएमवाईटी के कृषि वैज्ञानिक अजय कुमार के अनुसार एक लीटर डीजल के उपभोग पर हवा में 2.6 किग्रा कार्बनडाइ आक्साइड का निकलता है. अनुमान के अनुसार साल भर में एक हेक्टेअर खेत की जोताई और सिंचाई में करीब 150 लीटर की खपत होती है. इस तरह हवा में करीब 450 किग्रा कार्बनडाइ आक्साईड का उत्सर्जन होता है. न्यूनतम जोताई और सिंचाई की दक्ष विधाओं (स्प्रिंकलर एवं ड्रिप) का प्रयोग कर सिंचाई में लगने वाले पानी की मात्रा को काफी हद तक कम कर सकते हैं. इस तरह पर्यावरण संरक्षण, लोगों की और भूमि की सेहत के लिहाज से खासी उपयोगी है.
1- प्रति हेक्टेयर बोआई की लागत परंपरागत विधा की तुलना में करीब दो-ढाई हजार रुपये कम.
2- कम बीज लगने के बावजूद उपज में करीब 10-30 फीसद वृद्धि.
3- खेत तैयार में लगने वाले श्रम-संसाधन और ऊर्जा की करीब 80 फीसद बचत.
4- कम जुते खेत में पानी कम लगने से सिंचाई में करीब 15 फीसद बचत.
5- लाइन से बोआई के नाते फसल संरक्षा के उपाय आसान। गेहुंसा के प्रकोप में कमी.
6- फसल अवशेषों के कारण मृदा में कार्बन तत्व की वृद्धि होती है जिससे मृदा संरचना में सुधार.
ये भी पढ़ें-
Success Story: एक किसान का खास घोल, अब आधी यूरिया में पांए बंपर उपज, जाने क्या है सीक्रेट?
अक्टूबर–दिसंबर में अगेती गेहूं की खेती और देखभाल कैसे करें, जानें आसान और असरदार तरीका