सरकार देश को दलहन और तिलहन के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना चाहती है. जिससे दाल और तेल के मामले में देश को आयात पर निर्भर न रहना पड़े. सरकार की इस कोशिश को कामयाब बनाने के लिए किसान चना और सरसों की उपज बढ़ाने के लिए भरपूर कोशिश भी कर रहे हैं. मगर जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम की मार इन फसलों पर भी खूब पड़ रही है. इन हालात में किसानों के लिए चना और सरसों की बेहतर उपज लेना भी बड़ी चुनौती बन गई है. इससे निपटने के लिए रानी लक्ष्मीबाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक चना और सरसों की ऐसी हाइब्रिड किस्में विकसित कर रहे हैं, जिन पर लगातार बढ़ रहे तापमान का असर न पड़े और किसानों को इनकी उपज भी ज्यादा मिलती रहे.
विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सरसों की जलवायु अनुकूल दो हाइब्रिड किस्में विकसित कर इनके शुरुआती परीक्षण भी कर लिए हैं. विश्वविद्यालय की ओर से बताया गया कि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित सरसों की RH 725 और RH 749 किस्मों का बीज बुंदेलखंड सहित देश भर के लगभग 400 किसानों को उपजाने के लिए दिया गया है. परीक्षण में पाया गया कि इनकी उपज सामान्य किस्मों की तुलना में 7 कुंतल ज्यादा है.
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सरसों की आम तौर पर औसत उपज 17 कुंतल प्रति हेक्टेयर होती है, वहीं आरएच 725 और आरएस 749 की उपज 25 कुंतल तक बताई गई है. इन किस्मों में महज 2 बार सिंचाई करने की ही जरूरत पड़ती है. इनकी बुआई में बीज भी महज 1 किग्रा प्रति एकड़ की जरूरत होती है और इससे तेल की उपलब्धता भी सामान्य किस्मों की तुलना में 40 प्रतिशत ज्यादा पाई गई है.
रबी की फसल में चना और सरसों की बेहतर कीमत मिलने के कारण किसानों के लिए इनकी उपज को फायदे का सौदा माना जाता है. खासकर बुंदेलखंड जैसे इलाकों में कम पानी की जरूरत वाली चना और सरसों की खेती लाभकारी है, मगर पिछले कुछ सालों से जलवायु परिवर्तन के दौर में वैश्विक ताप वृद्धि के कारण सर्दी के मौसम की इन फसलों की उपज प्रभावित हुई है. इसे ध्यान में रखते हुए कृषि वैज्ञानिक चना और सरसों की जलवायु अनुकूल किस्में विकसित कर रहे हैं.
विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ अंशुमन सिंह ने बताया कि पूरे देश में चने की लगभग 1000 किस्में उगाई जाती हैं. इन पर शोध करके बदलते मौसम के असर का पता लगाया जा रहा है. इसका मकसद चना की ऐसी किस्मों को तैयार करना है जिनकी उपज पर गर्मी का असर न पड़े और इनकी गुणवत्ता भी खराब न हो.
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डॉ सिंह ने बताया कि चना और सरसों की फसल फरवरी तक पकने लगती है. इसे बेहतर तरीके से पकने में जितनी ठंड की जरूरत होती है, वह नहीं मिल पाती है. पिछले कुछ सालों में फरवरी महीने में तापमान सामान्य से ज्यादा दर्ज किया जा रहा है. सर्दी सिकुड़ने के कारण चना और सरसों ही नहीं गेहूं की उपज भी प्रभावित हो रही है.
गौरतलब है कि अकेले बुंदेलखंड के 7 जिलों में ही लगभग 3 लाख हेक्टेयर जमीन पर 26 हजार से ज्यादा किसान चना की खेती करते हैं. इनमें सबसे ज्यादा 59 हजार हेक्टेयर जमीन पर बांदा जिले में चने की खेती होती है. इसे ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक गुजरात, पंजाब, हरियाणा और एमपी सहित देश के अन्य राज्यों में उपजाई जा रही चने की 1000 से ज्यादा किस्मों को Cross Breed कराकर नई हाइब्रिड किस्में विकसित कर रहे हैं.