देश में भूमिगत जल प्रदूषण की समस्या गंभीर होती जा रही है, जिससे न केवल फसल उत्पादन पर बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. केन्द्रीय जल बोर्ड की 2024 की भूमिगत जल गुणवत्ता रिपोर्ट के अनुसार, सिंचाई के लिए प्रदूषित जल नमूनों का प्रतिशत 2022 में 7.69 फीसदी से बढ़कर 2023 में 8.07 फीसदी हो गया था. देश के भूमिगत जल में बढ़ती क्षारीयता और नाइट्रेट चिंताजनक विषय है. भूमिगत जल की गुणवत्ता में गिरावट फसल उत्पादन, मिट्टी की उर्वरता और मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है. भूमिगत जल में बढ़ते नाइट्रेट, आर्सेनिक और अन्य प्रदूषकों की मात्रा को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाने की जरूरत है, नहीं तो खेती और लोगों स्वास्थ्य पर संकट गहराता जा रहा है.
कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, अगर जल में क्षारीयता बढ़ती है तो फसलों की बढ़वार और उनकी उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहां क्षारीयता और लवणता का स्तर अधिक होता जा रहा है, वहां समस्या और भी गंभीर हो सकती है, क्योंकि लवण खेत की मिट्टी में ऊपर आ जाएगे और जड़ क्षेत्र में जमा होकर पौधों की जल ग्रहण क्षमता को प्रभावित करता है, जिससे पौधों को जरूरी मात्रा में पानी नहीं मिल पाता है और पौधो की वृद्धि रुक जाती है. इसके अलावा, अधिक लवणता खेत की मिट्टी के भौतिक गुणों को भी प्रभावित करती है, जिससे इसकी उर्वरता और जलधारण क्षमता कम हो जाती है.
भूमिगत जल में नाइट्रेट, फ्लोराइड, आर्सेनिक और आयरन जैसे तत्वों की उच्च सांद्रता के कारण सिंचाई जल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है. रिपोर्ट के अनुसार, देश के लगभग 20 फीसदी जल नमूनों में नाइट्रेट की मात्रा मानक सीमा से अधिक पाई गई. यह मुख्य रूप से खेती में नाइट्रोजनउर्वरकों जैसे यूरिया के ज्यादा इस्तेमाल के कारण है. सिंचाई जल में नाइट्रेट की अधिकता से फसलों के पकने में देरी होती है और उनकी गुणवत्ता खराब हो जाती है. तमिलनाडु महाराष्ट्र और राजस्थान, में भूमिगत जल में नाइट्रेट प्रदूषण सबसे अधिक है, जहां 40 फीसदी से अधिक नमूने भारतीय मानक सीमा से अधिक पाए गए.
इसके अलावा,भूमिगत जल में 3.55 फीसदी नमूनों में आर्सेनिक प्रदूषण पाया गया है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है. आर्सेनिक मुख्य रूप से कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों, औद्योगिक अपशिष्ट और जीवाश्म ईंधनों के जलने से उत्पन्न होता है. अगर यह सिंचाई जल के माध्यम से खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करता है तो यह गंभीर बीमारियों का कारण बन सकता है. इसी तरह, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी क्षेत्र के राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम और मणिपुर के साथ पंजाब और छत्तीसगढ़ में भी आर्सेनिक स्तर अधिक पाया गया है.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूर्वी परिसर पटना के भूमि और जल संरक्षण के विभाग के हेड डॉ आशुतोष कुमार उपाध्याय ने कहा कि भूमिगत जल की गुणवत्ता में गिरावट फसल उत्पादन, मिट्टी की उर्वरता और मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है. उन्होंने कहा कि जल को प्रदूषण से बचाने के लिए किसानों को जल गुणवत्ता, मिट्टी की लवणता और उनके दुष्प्रभावों के बारे में शिक्षित करना जरूरी है.
उन्होंने कहा कि अधिक यूरिया के उपयोग कम करने के लिए कृषि विधियों बढ़ावा दिया जाना चाहिए, क्योंकि इससे मिट्टी की गुणवत्ता प्रभावित होती है और दीर्घकालिक रूप से फसल उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. इसके बजाय, मृदा स्वास्थ्य कार्ड के आधार पर संतुलित उर्वरक प्रबंधन को अपनाया जाना चाहिए, ताकि मिट्टी में जरूरी मुख्य औऱ सूक्ष्म पोषक तत्वों की उचित मात्रा प्रयोग की जा सके.
मिट्टी की लवणता और क्षारीयता को कम करने के लिए ताजे और खारे पानी के संयुक्त उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. इससे फसल की वृद्धि और उपज पर प्रतिकूल प्रभाव को कम किया जा सकता है. अनाज और सब्जी चारे की फसलों, की खेती के लिए ऐसी प्रतिरोधी किस्मों का चयन किया जाना चाहिए, जो फ्लोराइड, आर्सेनिक, लोहा और अन्य विषाक्त तत्वों के दुष्प्रभावों को सहन करने में सक्षम हों. इससे न केवल मिट्टी की उर्वरता बनी रहेगी, बल्कि किसानों की उपज भी सुरक्षित और बेहतर होगी.इसके आलावा नीम-लेपित यूरिया, जैविक खेती, प्राकृतिक खेती और एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन जैसे टिकाऊ कृषि प्रद्तियो को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.
जल शोधन संयंत्रों को स्थापित करके नाइट्रेट, आर्सेनिक और अन्य हानिकारक तत्वों को जल से हटाया जा सकता है. भूजल पुनर्भरण के लिए अधिक जल संरक्षण संरचनाओं का निर्माण और वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना जरूरी है. इसके आलावा उद्योगो के निकलते कचरा प्रबंधन और रासायिनक और कीटनाशकों के अनियंत्रित उपयोग को रोकने के लिए सरकार को सख्त नीतियां लागू करनी चाहिए.