अगर आप डेयरी फार्मिंग करते हैं या फिर गाय-भैंस पालते हैं, तो थनैला रोग से बचाव और इलाज के बारे में जानना बेहद जरूरी है. इस कड़ी में हम जानेंगे कि घर पर ही थनैला रोग की जांच कैसे कर सकते हैं, इसके लक्षण क्या होते हैं, और इसे कैसे ठीक किया जा सकता है.
आपको बता दें गाय खरीदने से पहले गाय का लगातार 3 बार (सुबह-शाम-सुबह) दूध दुहकर दूध की मात्रा देख लें. थनैला किट का उपयोग करके थनैला की संभावना को भी आसानी से जांच किया जा सकता है. इस तरह थोड़ी सी सावधानी बरतकर हम अपनी डेयरी के लिए अच्छी गायें खरीद सकते हैं और एक लाभदायक डेयरी फार्म खोल सकते हैं.
थनैला रोग मादा पशुओं में जीवाणुओं के द्वारा होने वाला रोग है. यह शंकर नस्ल के दूधारू गाय-भैंसों में अधिक होता है. इस बीमारी में पशु के थन या उसके दूध के रंग, गंध, स्वाद या उसके आकार में परिवर्तन हो जाता है. अधिक दूध देने वाली गायों और भैसों में थनैला रोग का प्रकोप अधिक होता है. इसके होने से पशुपालकों को अधिक आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. थनों का यह संक्रामक रोग पशुओं को गंदे बथान, पानी वाले गीले जगह या कीचड़ वाले स्थान पर रखने से होता है.
थन में जख्म या चोट लगने, दूध पीते समय बछड़े या बछिया के दांतों द्वारा होने वाले जख्म या गंदे हाथों से दूध दुहने के कारण यह रोग हो सकता है. रोग की शुरुआत में अगर इलाज नहीं किया जाए तो यह रोग गंभीर हो जाता है और पशु का थन बर्बाद हो जाता है और पशुओं का दूध उत्पादन प्रभावित होता है.
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थनैला रोग के कई कारण हैं. थनैला रोग मुख्य रूप से बैक्टीरिया के कारण होता है, इसके अलावा फंगस, यीस्ट और थनों के घाव या चोट भी इसके लिए जिम्मेदार होते हैं. स्ट्रेप्टोकोकस, स्टैफिलोकोकस, माइकोप्लाज्मा, ई. कोली, कोरिनेबैक्टीरियम, माइकोबैक्टीरियम आदि कुछ महत्वपूर्ण बैक्टीरिया हैं जिनके संक्रमण से गाय, भैंस या भेड़-बकरियों में थनैला रोग हो सकता है. इसके अलावा पशु के आस-पास का वातावरण, आयु, नस्ल, दूध देने की स्थिति, दूध निकालने का तरीका, दूध निकालने का अंतराल, दूध निकालने में साफ-सफाई, मौसम का प्रभाव, भोजन या शरीर में मौजूद पोषक तत्व आदि भी थनैला रोग होने के मुख्य कारण हैं.
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थनैला रोग में दूध बनना कम हो जाता है या पूरी तरह बंद हो जाता है. इस रोग में थन सूज जाता है और दर्द होता है. थन लाल दिखाई देता है और छूने पर गर्मी महसूस होती है. इस समय पशु के शरीर का तापमान सामान्य से अधिक हो जाता है. पशु थन को छूने नहीं देता. अगर शुरुआती अवस्था में इलाज न किया जाए तो थन सख्त और पत्थर जैसा हो जाता है. इस अवस्था में रोग का इलाज बहुत मुश्किल है. इसलिए इस रोग का इलाज शुरुआती अवस्था में ही कर लेना चाहिए. थनैला रोग से ग्रसित पशु का दूध फट जाता है. कभी-कभी दूध में थक्के, थक्के, खून या मवाद या पानी जैसा तरल पदार्थ भी आने लगता है.
थनैला रोग का इलाज बहुत महंगा है, क्योंकि इसमें कई दिनों तक एंटीबायोटिक दवा देनी पड़ती है. इसलिए इस बीमारी का इलाज शुरू में ही कर लेना चाहिए. इलाज से पहले संक्रमित गाय से पूरा दूध निकाल लेना चाहिए. इसके बाद कल्चर सेंसिटिविटी टेस्ट द्वारा चुनी गई एंटीबायोटिक दवा का इस्तेमाल पशु चिकित्सक की सलाह पर करना चाहिए.
इसके साथ ही मेलोक्सिकैम, टोलफेनामिक एसिड आदि एंटी-इंफ्लेमेटरी दवा का इस्तेमाल करना चाहिए. विटामिन और मिनरल का इस्तेमाल डॉक्टर की सलाह पर करना चाहिए. संक्रमित पशु को दूसरे पशुओं से अलग रखना चाहिए और उसका दूध इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
थनैला रोग से बचाव के लिए गौशाला की नियमित रूप से कीटाणुनाशक से सफाई करनी चाहिए और गौशाला को हमेशा साफ और सूखा रखना चाहिए. गौशाला में पर्याप्त धूप, हवा और जलनिकासी की व्यवस्था होनी चाहिए. दूध दुहने से पहले हाथों को एंटीसेप्टिक लोशन या साबुन से अच्छी तरह धोना चाहिए. थन को गुनगुने पानी और लाल पोटाश के घोल से धोना चाहिए.
दूध दुहने के बाद थन को एंटीसेप्टिक कीटाणुनाशक घोल में डुबोना चाहिए. दूध दुहने के बाद गाय को आधे घंटे तक जमीन पर नहीं बैठने देना चाहिए, क्योंकि इस समय गाय के थन का छेद खुला रहता है और इसके जरिए बैक्टीरिया थन में प्रवेश कर सकते हैं. इसके लिए पशु के सामने थोड़ा चारा रख देना चाहिए ताकि पशु कुछ देर खड़ा होकर चारा खा सके. अगर पशु का दूध सूखने लगे तो थन में उपयुक्त एंटीबायोटिक ट्यूब डाल देनी चाहिए. ऐसा करने से अगले ब्यांत में थनैला रोग की संभावना कम हो जाती है. इस विधि को सूखी गाय चिकित्सा कहते हैं.