झारखंड का नाम लेते ही किसी भी भारतीय के मन में घने हरे जंगल, कल-कल बहते झरने और लहलहाती प्रकृतिक सम्पदा का दृश्य घूम जाता है. लेकिन अफसोस, कि पिछले दशक भर से यह राज्य सूखे की समस्या से जूझ रहा है. देश के मौसम विज्ञान विभाग (आई एम डी) की वार्षिक मौसम रिपोर्ट (झारखंड) के अनुसार, वर्ष 2022 पिछले दस साल में राज्य के लिए सबसे ज़्यादा सूखा प्रभावित वर्ष रहा. इस साल राज्य में 817 एम एम वर्षा हुई जो सामान्य से 20% कम है. हालत ये हुई कि अक्तूबर 2022 में राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग ने 24 में से 22 जिलों को सूखा प्रभावित क्षेत्र घोषित कर दिया और 2 फरवरी 2023 तक करीब 31 लाख से ज़्यादा किसानों ने मुख्यमंत्री सुखाड़ राहत योजना के अंतर्गत राहत पाने के लिए आवेदन दिया है. इनमें से करीब 16 लाख किसान तो बुवाई ही नहीं कर पाये जबकि 998, 714 किसानों की एक तिहाई फसल क्षतिग्रस्त हो गई.
2011 की जनगणना के अनुसार, झारखंड मुख्यतः कृषि आधारित राज्य है. यहाँ की 63% ग्रामीण जनता खेती-बाड़ी करती है और ज़्यादातर धान की खेती होती है. मक्का, दालें और तिलहन अन्य फसलें हैं जो यहाँ उगाई जाती हैं. आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल पानी की कमी के नतीजतन तकरीबन 50% कृषि योग्य ज़मीन पर बुवाई नहीं हो सकी. इसकी मुख्य वजह ये है कि राज्य की कृषि अर्थव्यवस्था मुख्यतः बारिश पर निर्भर करती है. राज्य के 92% खेत पूरी तरह से बारिश पर निर्भर हैं जबकि सालाना 82% बारिश सिर्फ मॉनसून के दौरान ही होती है यानी बेमौसम बरसात में अगर ज़रा सी भी कमी आ जाए तो इससे झारखंड की खेती पर विनाशकरी असर पड़ता है.
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जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की अवधि और तेज़ी गंभीर रूप से बढ़ गई है. “झारखंड एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज” के अनुसार 1956-2000 की तुलना में 2001-2008 के दौरान सालाना बारिश में काफी कमी आई है. इसके साथ ही गंभीर सूखे की स्थिति भी बार बार पैदा हो रही है – पिछले 23 सालों में 14 साल राज्य के विभिन्न क्षेत्र सूखे से ग्रस्त हुए. इससे मिट्टी की आर्द्रता पर भी असर पड़ रहा है। इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन के Desertification and Land Degradation Atlas of India(2016) के अनुसार झारखंड में देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज़्यादा भू मरुस्थलीकरण और भूमि अवक्रमण हुआ है, 2011-13 की अवधि में यह 68.98% रहा.
लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए था क्योंकि झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां जल संरक्षण और संचयन पर सबसे ज़्यादा काम हुआ है। महात्मा गांधी नेशनल रुरल इम्प्लॉइमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) के तहत 2014-15 से 2021-22 तक 3000 करोड़ रुपये से ज़्यादा वाटरशेड प्रबंधन (watershed management) और परंपरागत जलस्रोतों पर खर्च किए गए हैं. अन्य अहम चीजों के साथ साथ, लगभग 240,000 तालाब बनाए गए हैं जो खेतों के करीब हैं या खेतों में ही हैं. जिनका मुख्य उद्देश्य बारिश की कमी या बिलकुल सूखे की स्थिति में सिंचाई के काम आना ही होता है. जितना काम हुआ है, उसके मद्देनजर, राज्य में पानी की किल्लत होनी ही नहीं चाहिए थी. तो फिर ऐसा क्या हुआ कि इतने प्रयासों के बावजूद भी झारखंड सूखे की स्थिति से जूझ रहा है?
एक गैर सरकारी संस्था Jharkhand NREGA Watch ने डाउन टु अर्थ को बताया कि जल संरक्षण और संचयन की लचर योजना व प्रबंधन इसका मुख्य कारण है. पहले ऐसे सभी कार्यों में स्थानीय किसानों, ग्रामीणों और गैर सरकारी संस्थाओं को साथ जोड़ कर काम किया जाता था चूंकि ज़ाहिर है, स्थानीय लोगों को अपनी जगह, ज़रूरत और भूगोल की अधिक समझ होती है. लेकिन 2016-17 में इस क्षेत्र में जो भी काम किए गए उनमें स्थानीय किसानों व संस्थाओं से बातचीत को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया. यहाँ तक कि राज्य सरकार की आपदा प्रबंधन विभाग की वैबसाइट भी Jharkhand NREGA Watch का हवाला देते हुए ये मानती है कि अगर राज्य के क्लाइमेट एक्शन प्लान में उठाए गए मुद्दों पर ध्यान देते हुए जल संचयन और संरक्षण किया जाता तो राज्य की 90% जल संबन्धित समस्या का हल हो सकता था.
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इस समस्या का दूसरा बड़ा हल है- चावल के अलावा अन्य फसलों की खेती. वर्ष 2015 में नीति आयोग ने अपने एक नोट में कहा था कि खरीफ के समय राज्य का 70% खेत चावल की फसल से भरा होता है लेकिन रबी के दौरान यही कृषि क्षेत्र ऊसर रहता है. अगर खेती की नीतियों में ज़रा सा फर्क लाया जाए और रबी के दौरान खेतों में कम अवधि वाला डाइरैक्ट सीडेड राइस या अन्य कम अवधि वाली फसलें जैसे सब्जियाँ, दालें, तिलहन वगेरह उगाई जाएँ तो मिट्टी में धान की सिंचाई के बाद बची आर्द्रता का सदुपयोग भी हो सकेगा और ये फसलें स्थानीय तालाबों वगेरह से कम से कम सिंचाई पर उगाई जा सकेंगी.
सूखे के कारण गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ा नहीं जा सकता और जलवायु परिवर्तन इस समस्या को और भी गंभीर रूप दे रहा है इसीलिए “Jharkhand Action Plan on Climate Change” का कहना है कि ज़्यादा से ज़्यादा स्थानीय लोगों और संस्थाओं को प्राकृतिक संसाधनों के संचय और संरक्षण की योजनाओं और कामों मे जोड़ना चाहिए और एक विकेंद्रित व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें स्थानीय लोगों और अनुभव का फायदा आम जन को मिल सके.(डाउन टु अर्थ से साभार)
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