तसर की खेती से बदल रही आदिवासी परिवारों की किस्मत, मेहनत ने बढ़ाई इनकम

तसर की खेती से बदल रही आदिवासी परिवारों की किस्मत, मेहनत ने बढ़ाई इनकम

तसर की खेती आम तौर पर जंगली इलाकों में की जाती है जहां पर किसानों के पास सामान्य खेती करने के लिए बुनियादी सुविधाओं का अभाव होता है. उनके लिए बाजार दूर होते हैं. कृषि इनपुट खरीदना आसान नहीं होता है. इस तरह किसान तसर की खेती पूरी मेहनत से करने के बाद कमाई करते हैं.

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तसर की खेती से बदल रही आदिवासी परिवारों की किस्मत, मेहनत ने बढ़ाई इनकमतसर की खेती

तसर उत्पादन में झारखंड की पहचान पूरे देश में होती है. यहां के सिल्क से बने कपड़े की पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होती है. इसके पीछे यहां के किसानों की मेहनत छिपी होती है. तसर की खेती करने में खूब मेहनत लगती है, तब जाकर एक स्वस्थ ककून किसान को मिलता है. इसकी आगे प्रोसेसिंग की जाती है और फिर उसके उत्पाद बनाए जाते हैं. झारखंड की राजधानी रांची में स्थित केंद्रीय तसर अनुसंधान परिषद भी राज्य में किसानों को इसकी खेती से जोड़ रहा है और उनके जीवन स्तर में सुधार ला रहा है. इससे किसानों की कमाई बढ़ी है. 

तसर की खेती आम तौर पर जंगली इलाकों में की जाती है जहां किसानों के पास सामान्य खेती करने के लिए बुनियादी सुविधाओं का अभाव होता है. उनके लिए बाजार दूर होते हैं. कृषि इनपुट खरीदना आसान नहीं होता है. जमीन समतल और खेती के लायक नहीं रहती है. जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है. सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती है. इन तमाम चुनौतियों के बावजूद आदिवासी किसानों ने अपनी मेहनत से तसर की खेती को नया रंग दिया है. इसमें केंद्रीय तसर अनुसंधान एंव प्रशिक्षण केंद्र के निदेशक डॉ एनबी चौधरी की भूमिका भी सराहनीय है. उनके प्रयास से इस क्षेत्र में अधिक से अधिक परिवारों को इसकी खेती से जोड़ा जा रहा है.

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सफल हो रहे किसान

संस्थान के वैज्ञानिक डॉ जयप्रकाश पांडेय ने बताया कि तसर रेशम उद्योग ग्रामीण भारत के लिए रोजगार का एक सशक्त माध्यम बनता जा रहा है. इसके जरिए चक्रधरपुर अनुमंडल के कुरजुली और आस-पास के गांवों के किसान सफलता की कहानी लिख रहे हैं. चक्रधरपुर स्थित तसर बीज उत्पादन केंद्र के वैज्ञानिक डॉ तपेंद्र सैनी ने बताया कि जब से इस क्षेत्र में तसर के लिए बीज उत्पादन और कमर्शियल ककून का उत्पादन शुरू हुआ है, यहां के लोगों की जिंदगी बदल गई है. सबसे बड़ा बदलाव आया है कि इस संपूर्ण आदिवासी क्षेत्र से अब पलायन पूरी तरह रुक गया है. केंद्र से जुड़े गांव गांवों के 200 लोग अब पैसा कमाने के लिए पलायन नहीं करते हैं. 

पांच किसानों से हुई थी शुरुआत

तपेंद्र सैनी ने बताया कि इसकी शुरुआत सिर्फ पांच किसानों से हुई थी. सबसे पहले पांच किसान तसर उत्पादन से जुड़े थे. उसके बाद आज पांच गांवों के 200 से अधिक किसान उनके साथ काम कर रहे हैं. इस सभी किसानों को पहले तसर की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया. इसके बाद किसानों को उससे संबंधित ट्रेनिंग दी गई. फिर किसान इसकी खेती कर रहे हैं. इसके अलावा भी किसान दूसरी अन्य सब्जियों और फसलों की भी खेती कर रहे हैं, इससे उनकी कमाई बढ़ी है. 

50-60 हजार तक है कमाई

तसर की खेती से होने वाली कमाई की बात करें तो एक किसान इसकी खेती करके 43-45 दिनों में 50-60 हजार रुपये की औसत कमाई कर लेता है. मछुआ पूर्ति नाम के एक किसान ने पिछले साल एक लाख 31 हजार रुपये की कमाई की थी. उन्हें सरायकेला में आयोजित किसान मेला में तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने सम्मानित किया था. तपेंद्र ने बताया कि मछुआ पूर्ति की जिंदगी में बहुत बदलाव आया है. पहले वो काम करने के लिए बाहर जाते थे और थोड़ा बहुत खेती करते थे. उनका जीवन गरीबी में बीत रहा था, पर तसर की खेती करने के बाद उन्होंने पक्का मकान बना लिया है और फिर खुद की बाइक भी खरीद ली है. बैंक में कुछ पैसे भी जमा कर लिए हैं. 

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किसानों को दिए जाते हैं 100-200 डीएफएल

किसानों को खेती करने के लिए कुकून के सीजन में 100-200 रोग मुक्त अंडे (Disease Free larva) दिए जाते हैं. एक अंडे की कीमत 16 रुपये होती है. इस तरह से किसानों को सिर्फ पूंजी के तौर पर यही राशि खर्च होती है. इसके बाद सिर्फ किसानों को मेहनत करनी पड़ती है. डीएफएल को चिड़ियों और चीटियों से बचाना होता है. इसके बाद जब वे बड़े हो जाते हैं तो फिर उन्हें दूसरे पेड़ में ट्रांसफर करना होता है. पेड़ के नीचे भी खरपतवार को अच्छे तरीके से साफ करना पड़ता है. 

इतनी होती है पैदावार

इसके बाद सीड और कमर्शियल ककून तैयार हो जाता है. एक सीड की कीमत 2.90 रुपये और कमर्शियल कुकून की कीमत 5.60 रुपये मिलते हैं. यह रेट सरकार द्वारा हर साल तय किया जाता है. एक रोग मुक्त लार्वा से 50-60 सीड बन जाते हैं. हालांकि इस क्षेत्र के किसान 70-80 बीज तक की पैदावार हासिल करते हैं. एक साल में किसान इसकी दो फसल ले सकते हैं. इससे उनकी कमाई अच्छी हो जाती है. आज सभी अच्छा जीवन जीवन जी रहे हैं. लगभग सभी के पास अपनी मोटरसाइकिल है. अब उन्हें जंगल से लकड़ी काटकर बेचने की जरूरत नहीं होती है. इससे पेड़ भी बच रहे हैं. 

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झारखंड में सिल्क का उत्पादन

किसान अपने सीड और कुकून को वापस विभाग को ही बेच देते हैं. इसके अलावा कुछ व्यापारी भी आकर उनसे खरीद लेते हैं. पर अधिकांश बीज विभाग की तरफ से खरीद लिया जाता है. झारखंड में प्रत्येक साल 1500 टन सिल्क का उत्पादन होता है. देश भर में साल 2024-25 में 263302 हेक्टेयर में तसर की खेती की गई है. जबकि भारत में कुल सिल्क का उत्पादन 38913 मीट्रिक टन होता है. 

 

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