रफीकुल आलम बिहार में किशनगंज के किसान हैं. वे सिंघिया गांव के रहने वाले हैं और अमरूद की खेती में अपना बड़ा नाम किया है. उनके शुरुआती दौर की बात करें तो 1980 में एक गरीब परिवार में उनका जन्म हुआ. परिवार बड़ा था, इसलिए आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी. गरीबी के चलते उनकी पढ़ाई 9वीं क्लास तक ही हो सकी. इसके बाद वे किशनगंज स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के संपर्क में आए. इस संपर्क के बाद ही उनकी और उनके परिवार की माली हालत बदलती चली गई. आइए उनकी सफलता की कहानी के बारे में जान लेते हैं.
उन्होंने अपने गांवों के लोगों से 4 एकड़ जमीन बटाई पर ली और अमरूद की बागवानी शुरू कर दी. इसके लिए उन्होंने पश्चिम बंगाल के नादिया जिले से अमरूद के पौधे मंगाए. अपने बटाई की जमीन पर शुरू में उन्होंने 800 अमरूद के पौधे लगाए. इसमें उन्होंने पूरी तरह से वैज्ञानिक तौर-तरीकों को अपनाया.
पौधे मंगाने और 4 एकड़ जमीन में लगाने में कुल खर्च 50000 रुपये का आया. अमरूद के अलावा अन्य कमाई के लिए उन्होंने हल्दी के पाउडर बनाने और प्रोसेसिंग करने का काम शुरू किया. इससे बने प्रोडक्ट को उन्होंने लोकल मार्केट में बेचना शुरू किया.
कृषि विज्ञान केंद्र से मिले निर्देशों को रफीकुल आलम ने पूरी तरह से माना और उस पर अमल करना शुरू किया. इस तरह 1 महीने में उन्होंने अमरूद की दो फसल ली. इसमें उन्हें 120 किलो फल प्रति पौधा मिले और ये फल 2 साल के पौधे से मिले. आलम ने इन फलों को बिहार और बंगाल के अलग-अलग शहरों में बेचना शुरू किया. उन्होंने किशनगंज, इस्लामपुर, कांकी, सिलीगुड़ी और डलकोहला (पश्चिम बंगाल) मार्केट में 25-30 रुपये किलो की दर से बेचना शुरू किया.
कृषि विज्ञान केंद्र की मदद से उन्हें अमरूद के कलम तैयार करने की जानकारी भी मिली थी. इसे अपनाकर उन्होंने कलमें बेचने का काम शुरू किया. इस तरह उन्हें प्रति कलम 70-80 रुपये की कमाई हुई. इस तरह रफीकुल आलम का नाम पूरे किशनगंज में फैल गया और वे अमरूद की बागवानी और ग्राफ्टिंग के लिए जाने जाने लगे. उनकी वैज्ञानिक ढंग की खेती सफल रही और वे अमरूद से 9 लाख रुपये सालाना कमाते हैं.
यह कमाई बढ़ने के बाद रफीकुल आलम ने 4 एकड़ जमीन खरीदी और अलग से 4 एकड़ जमीन बटाई पर ली. अब वे अमरूद के अलावा सब्जियों की अगेती किस्में लगाते हैं और बाजार में पहले उतार कर अच्छा कमाते हैं. आज वे ऑफ सीजन सब्जियों की खेती से बहुत बढ़िया मुनाफा कमा रहे हैं. इसके लिए उन्होंने पॉलीहाउस तकनीक का सहारा लिया है. इस काम में उन्हें किशनगंज स्थित कृषि विज्ञान केंद्र की बहुत मदद मिली है.
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