सेना से कर्नल के पद से रिटायर हुए सोमेंद्र पांडेय इन दिनों अपने गांव की पुश्तैनी जमीन को रसायनमुक्त बनाने में जुटे हैं. सेना में देश की सेवा के बाद अब वे खेतों में नई क्रांति ला रहे हैं. अनुशासन से भरी उनकी जिंदगी अब खेती के नए प्रयोगों के जरिए गांव की तकदीर बदलने की दिशा में अग्रसर है. बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज प्रखंड के बाथ गांव के निवासी सोमेंद्र अपनी पुश्तैनी 14 एकड़ जमीन पर प्राकृतिक तरीके से आधुनिक खेती का सफल मॉडल तैयार कर रहे हैं. उनका कहना है कि अब उनके जैसे अन्य लोगों को गांव लौटकर खेती में नए प्रयोग करने होंगे, तभी गांवों की समृद्धि और खेती के तौर-तरीकों में बदलाव आएगा.
सोमेंद्र पांडेय बताते हैं कि जब वे सेना में कर्नल पद पर पहुंच चुके थे. तभी उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (Voluntary Retirement) लेने का फैसला किया था. रिटायर्ड होने के बाद वे एनजीओ से जुड़कर सामाजिक कार्य करना चाहते थे. लेकिन 2018 में मां को कैंसर हो गया. इसके बाद उन्होंने न केवल सेवानिवृत्ति का फैसला बदला, बल्कि यह भी पता लगाया कि कैंसर के प्रमुख कारण क्या है.
उन्होंने पाया कि भोजन, फल और सब्जियों में रसायनों का अत्यधिक उपयोग कैंसर का एक बड़ा कारण है. इसके बाद उन्होंने एनजीओ में जाने का इरादा छोड़ दिया और 2019 में अपने गृह जिले भागलपुर में एनसीसी में ट्रांसफर लिया. साथ ही गांव में खेती से जुड़ी जानकारी जुटानी शुरू की. 2021 में रिटायर होने के बाद वे पूरी तरह से जैविक खेती में जुट गए.
सोमेंद्र अपनी 14 एकड़ जमीन पर प्रकृति युक्त जैविक फार्म तैयार कर रहे हैं. इसमें उन्होंने 2 एकड़ जमीन पर तीन तालाब बनवाए हैं. इसके अलावा, पछुआ हवा से फसलों को बचाने के लिए फार्म की पश्चिम दिशा में बांस, अर्जुन, महोगनी, कटहल, नींबू, महुआ जैसे कई अन्य पेड़ लगाए हैं. उनका कहना है कि ये पेड़ पछुआ हवा को कम करने में कारगर होंगे. साथ ही, वे सितंबर से जैविक सब्जियों की खेती शुरू करने जा रहे हैं.
वे कहते हैं कि उनकी पेंशन और पुश्तैनी जमीन होने के कारण वे जैविक सब्जियों और अन्य फसलों की खेती आसानी से कर सकते हैं, क्योंकि उनके लिए खेती आजीविका का एकमात्र साधन नहीं है. जबकि अन्य किसानों के लिए जैविक खेती करना इतना आसान नहीं है क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था का आधार ही खेती है.
सोमेंद्र बताते हैं कि 2021 में सेना से रिटायर होने के बाद उन्होंने खेती शुरू करने से पहले गांव की स्थिति को समझने की कोशिश की. उन्हें लगा कि वे अपने गांव में आसानी से खेती कर सकते हैं. हालांकि, समय के साथ गांव में काफी बदलाव आए हैं. आज जातीय समीकरणों ने गांव की एकता को खंडित कर दिया है. फिर भी उन्होंने खेती करने का फैसला किया. इसके लिए उन्होंने हैदराबाद में एएल नरसन्ना से 13 दिन का परमाकल्चर प्रशिक्षण लिया और गोवा में प्राकृतिक तरीके जैविक खाद बनाने की तकनीक सीखी.
सोमेंद्र बताते हैं कि 14 एकड़ के फार्म को तैयार करने में अब तक करीब 40 लाख रुपये खर्च हो चुके हैं. आगे और भी राशि खर्च हो सकती है. उनका कहना है कि उनके जैसे लोगों को अपने गांव के बारे में सोचना होगा. अगर वे बाहर खर्च होने वाला पैसा अपने गांव में लगाएंगे, तो इससे न केवल गांव की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे.
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