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वर्मीकंपोस्ट ने बदली कश्मीर के किसान की किस्मत, एक करोड़ से अधिक है सालाना टर्नओवर

वर्मीकंपोस्ट ने बदली कश्मीर के किसान की किस्मत, एक करोड़ से अधिक है सालाना टर्नओवर

एक ट्रेन यात्रा ने कश्मीर के अंनतनाग में फलों और सब्जियों की खेती करने वाले किसान अब्दुल अहद की सोच बदल दी. इस यात्रा में उन्हें वर्मीकंपोस्ट और उससे होने वाले फायदे के बारे में जानकारी मिली. इसके बाद वो वापस आकर इसे बनाने में जुट गए. शुरूआत में थोड़ी परेशानी जरूर हुई पर आज वो एक सफल उद्यमी हैं. पढ़ें उनकी सफलता की कहानी

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अब्दुद अहद (फोटोः फेसबुक) अब्दुद अहद (फोटोः फेसबुक)

देश में जैविक खेती के बढ़ते दायरे के बीच अब खेतों में वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल भी बढ़ा है. वर्मी कंपोस्ट के बढ़ते इस्तेमाल के साथ इसकी मांग में तेजी आई है. यही वजह है कि वर्मी कंपोस्ट निर्माण आज एक बेहतर व्यवसाय बनकर उभर रहा है और कई लोग खासकर युवा इसे स्टार्टअप के तौर पर खोल रहे हैं. इतना हीं नहीं इससे वो अच्छी सफलता भी हासिल कर रहे हैं औऱ अच्छी कमाई कर रहे हैं. साथ की किसानों को जैविक खेती करने में सहायता कर रहे हैं. क्योंकि कई किसान ऐसे भी होते हैं जो जैविक खेती तो करना चाहते हैं संसाधनों की कमी का हवाला देकर नहीं कर पाते हैं ऐसे में रेडीमेड वर्मी कंपोस्ट मिल जाने से उन्हें काफी आसानी हुई है. 

कश्मीर के एक ऐसे ही वर्मी कंपोस्ट उत्पादक हैं अब्दुल अहद जो कश्मीर के किसानों को वर्मी कंपोस्ट मुहैया कराकर जैविक खेती करने में मदद कर रहे हैं. अब्दुल खुद भी किसान परिवार से आते हैं और बागवानी करते थे. वह अपने बगान में सेब नाशपाती और सब्जियों की खेती करते हैं. पर एक रेल यात्रा ने उनकी जिंदगी बदल दी. दरअसल एक बार 1996 में वो एक ट्रेन यात्रा पर थे तब उन्होंने सिक्किम की दो महिलाओं को वर्मीकंपोस्ट के बारे में बात करते हुए सुना. इसके बाद उन्होंने इसके लाभ के बारे में जाना. हालांकि उन्होंने पहले भी अपने खेतों में केंचुए देखे थे पर उसके लाभ के बारे में उन्हें पता नहीं थी कि उनका इस्तेमाल वर्मी कंपोस्ट बनाने के लिए किया जा सकता है. 

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वर्मीकंपोस्ट के बारे में नहीं थी जानकारी

इस यात्रा के दौरान अब्दुल को पता चला की वर्मी कंपोस्ट के इस्तेमाल से पौधें मजबूत होते हैं और मिट्टी की उर्रवरक क्षमता बढ़ जाती है. इसके बाद दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले के सेमथान गांव के रहने वाले किसान को इसमें दिलचस्पी हुई. हालांकि खेतों में गोबर के इस्तेमाल के बारे में वो पहले से ही जानते थे गोबर के इस्तेमाल से फायदा होता है पर वर्मीकंपोस्ट का इस्तेमाल उनके लिए और कश्मीर के किसानों के लिए पूरी तरह नया कंसेप्ट था. 

पहली बार में नहीं मिला अच्छा रिस्पॉन्स

घर आने के बाद अब्दुल जिला कृषि अधिकारी के पास गए और व्यावसायिक रूप से वर्मीकम्पोस्ट तैयार करने के बारे में अपने  विचार साझा किए ताकि अन्य किसानों को भी इसका लाभ मिल सके. इसके बाद उन्होंने 30 बेड वाली एक वर्मीकम्पोस्ट इकाई स्थापित की. इस बेड में उन्होंने अपने खेत में मौजूद केंचुएं और खेत में स्थित खरपरवार को डाल दिया. खाद तो तैयार हुआ किसानों से अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिला, इसलिए अब्दुल को अपना यूनिट बंद करना पड़ा. पर उन्होंने हार नहीं मानी और एक बार फिर से 2002 में वर्मीकंपोस्ट बनाने का फैसला किया. 

चार बैग बेचने से हुई शुरुआत

उन्होंने 15 फीट x 3 फीट के चार बिस्तर तैयार किए और  वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग अपने खेत में किया. इसके बाद उन्होंने 2003 में 50 किलोग्राम के चार बैग वर्मीकम्पोस्ट बेचे, जिसे  एक कृषि वैज्ञानिक ने खरीदा था.इसके बाद दक्षिण कश्मीर में वर्मीकंपोस्ट के बारे में बातें होने लगीं. अधिक संख्या में किसान वर्मी कंपोस्ट खरीदने के लिए आने लगे. इसके कारण उन्हें फिर बेड की संख्या बढ़ानी पड़ी.  उन्होंने सीमेंट के टैंक से लेकर प्लास्टिक कंटेनर और मिट्टी के बर्तनों में भी वर्मी कंपोस्ट तैयार करना शुरू कर दिया. 2013 में बढ़ती मांग को देखते हुए उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र अनंतनाग से केंचुए खरीदे. इसी समय जैविक खेती को लेकर सरकार ने जागरूकता फैलाना शुरू किया इससे उनका कारोबार तेजी से बढ़ने लगा. 

प्रतिदिन होती है 50,000 की आय

एक स्थानीय न्यूज वेबसाइट से बात करते हुए अब्दुल बताते हैं कि आज वो 15 कनाल में 1,000 बिस्तर पर वर्मीकम्पोस्ट बनाते हैं, जिसमें प्रत्येक 50 किलोग्राम के 100 से 120 बैग का दैनिक उत्पादन होता है. प्रत्येक बैग की कीमत 500 रुपये, इस तरह से प्रतिदिन उन्हें 50,000 रुपये की आय होती है. उनकी अनंतनाग में दो और जम्मू में एक यूनिट है. अब्दुल कहते हैं, ''मैं अनंतनाग जिले की मांग पूरी करने में असमर्थ हूं. उन्होंने कहा कि पिछले वित्तीय वर्ष में सालाना टर्नओवर 1.5 करोड़ रुपये था.इस वित्तीय वर्ष में कारोबार को 2 करोड़ रुपये तक ले जाना चाहते हैं.

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मिले हैं कई पुरस्कार

फिलहाल अब्दुल अपने कारोबार के जरिए 20 लोगों को रोजगार दे रहे हैं, इनमें से तीन एमबीए है जो मार्केटिंग का काम देखते हैं. बढ़ते जैविक खेती के बीच वर्मी कंपोस्ट की मांग भी बढ़ी है. सिर्फ घाटी में ही सालाना 12-15 लाख बैग वर्मीकंपोस्ट की जरुरत होती है. जबकि अब्दु्ल स्थानीय स्तर पर एक लाख बैग से भी कम उत्पादन कर पाते हैं. बाकी जम्मू-कश्मीर के बाहर से खरीदा जाता है. वर्मीकंपोस्ट को लेकर किए गए बेहतर कार्य के लिए अब्दुल अहद को भारत सरकार के अलावा और भी कई संस्थानों की तरफ से सम्मानित किया जा चुका है. अपने वर्मी कंपोस्ट यूनिच के जरिए उन्होंने अपने गांव सिमथान को जैविक गांव बना दिया है.