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Election Diary : मराठा प्रभाव वाली छिंदवाड़ा सीट पर यूं ही नहीं खिलता है कांग्रेस का 'कमल'

Election Diary : मराठा प्रभाव वाली छिंदवाड़ा सीट पर यूं ही नहीं खिलता है कांग्रेस का 'कमल'

एमपी में छिंदवाड़ा एकमात्र इलाका है, जहां के लोग 'कांग्रेस और कमल' पर पूरा भरोसा करते हैं. चौंकने की जरूरत नहीं है, छिंदवाड़ा में कमल का मतलब भाजपा का कमल नहीं, बल्कि कांग्रेस के कद्दावर नेता कमल नाथ हैं, जिनकी वजह से छिंदवाड़ा, पिछले साढ़े चार दशक से कांग्रेस का अभेद गढ़ बना हुआ है. भाजपा ने कांग्रेस के इस किले को भेदने के लिए 2024 के चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी है.

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कमलनाथ की बहू ने खेत में पहुंचकर काटा गेहूं कमलनाथ की बहू ने खेत में पहुंचकर काटा गेहूं

कम ही लोग जानते हैं कि, एमपी में एक ऐसी लोकसभा सीट भी है, जिसके सामाजिक समीकरणों में मराठी प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है. एमपी का दक्षिणी क्षेत्र  महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके से सटा हुआ है. विदर्भ की मराठा संस्कृति का असर एमपी के छिंदवाड़ा तक महसूस किया जा सकता है. यही वजह है कि मराठी समाज का असर छिंदवाड़ा की Political Equations पर भी पड़ता है. आजादी के बाद 1970 के दशक तक यह प्रभाव इतना हावी रहा कि 1952 में छिंदवाड़ा के पहले सांसद रायचंद भाई शाह कांग्रेस के टिकट पर चुने गए. इसके बाद 1957 में कांग्रेस के ही नारायण राव वाडिवा चुनाव जीते. इस सिलसिले काे नागपुर निवासी कांग्रेस के गार्गी शंकर मिश्रा ने 1977 तक आगे बढ़ाया. मिश्रा, इस सीट से 3 बार सांसद चुने गए. छिंदवाड़ा से मराठा असर को तोड़ने का काम कमलनाथ ने 1980 में किया. उन्होंने यह काम इतने पुख्ता तरीके से किया कि पिछले 44 साल से इस सीट पर, महज एक अपवाद को छोड़ दें तो कांग्रेस का ही 'कमल' खिल रहा है.

आपातकाल में भी कांग्रेस काे मिली जीत

छिंदवाड़ा लोकसभा सीट 1951 में वजूद में आई थी. इस सीट पर पहली बार 1952 में कांग्रेस के रायचंद भाई शाह पहले सांसद चुने गए. इसके बाद लगातार इस सीट पर कांग्रेस के ही उम्मीदवार की जीत होती रही. यहां तक कि आजाद भारत में Electoral Politics के लिहाज से कांग्रेस के लिए 3 दौर सबसे खराब आए. पहला दौर 1977 में आया, जब आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस का North India से सफाया हो गया. उस समय भी छिंदवाड़ा से कांग्रेस के गार्गी शंकर मिश्रा चुनाव जीते थे.

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इसके बाद 2014 में कांग्रेस के लिए तीसरा सबसे बुरा दौर 'मोदी युग' के रूप में आया. इसमें भी भाजपा, कमलनाथ से छिंदवाड़ा की सीट नहीं छीन पाई. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एमपी की 29 में से 28 सीट जीती थीं, सिर्फ छिंदवाड़ा में ही कांग्रेस के 'कमल' के आगे भाजपा का कमल नहीं खि‍ल पाया था. इस चुनाव में कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ जीत गए.

इंदिरा ने बताया था तीसरा बेटा

छिंदवाड़ा सीट पर कांग्रेस के कमलनाथ का प्रभुत्व कायम कराने में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1080 में अहम भूमिका निभाई थी. उस दौर में 1977 तक छिंदवाड़ा सीट मराठा प्रभाव में थी. हालांकि कांग्रेस के लिए 1977 में बेहद चुनौती भरे समय में नागपुर के रहने वाले गार्गी शंकर मिश्रा ने इस सीट पर लगातार तीसरी बार जीत दर्ज की थी. लेकिन 1980 का चुनाव आने पर छिंदवाड़ा की जनता ने मराठा प्रभाव से बाहर आने के लिए मिश्रा की उम्मीदवारी का विरोध कर दिया. ऐसे में कांग्रेस के सामने मिश्रा जैसा कद्दावर प्रत्याशी उतारने की चुनौती पेश आई. उस समय कमलनाथ ने गांधी परिवार की इस चुनौती का समाधान पेश करते हुए खुद चुनाव के मैदान में उतरने की इच्छा जताई. 

लगभग 22 साल की उम्र में कांग्रेस में शामिल हुए कमलनाथ अपनी सियासी सूझबूझ से गांधी परिवार का विश्वास जीतने में कामयाब हो चुके थे. इसके फलस्वरूप ही इंदिरा गांधी ने कमलनाथ को 1980 के चुनाव में न केवल उम्मीदवार बनाया, बल्कि छिंदवाड़ा में रैली करके उन्हें राजीव एवं संजय गांधी के बाद अपना तीसरा बेटा भी करार दिया. इसके चुनाव के साथ ही छिंदवाड़ा की जनता और कमलनाथ ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

1980 के बाद से वह अब तक 9 बार (1980, 1984, 1989, 1991, 1998, 1999, 2004, 2009 और 2014) छिंदवाड़ा से सांसद बने. एक ही सीट से 9 बार लोकसभा चुनाव जीतने का उन्होंने कीर्तिमान बना दिया. इस लोकसभा सीट के 72 साल के इतिहास में पिछले 44 साल से नाथ परिवार का ही दबदबा बना हुआ है. इसमें नौ बार कमलनाथ के अलावा 1996 में उनकी पत्नी अलका नाथ और 2019 में बेटे नकुल नाथ सांसद चुने गए.

अपनी ही गलती से हारे कमलनाथ

भारत की चुनावी राजनीति में माना जाता है कि देश की जनता किसी नेता को सिर माथे पर भले ही बिठाती है, लेकिन उसके अहंकार को कभी स्वीकार नहीं करती है. खुद इंदिरा गांधी से लेकर कमलनाथ तक इस बात के जीते जागते उदाहरण हैं. कमलनाथ के लिए अजेय बनी छिंदवाड़ा की सीट पर एक अपवाद इस बात का भी है कि जनता ने उनके अतिआत्मविश्वास को मिट्टी में मिला दिया था.

बात 1996 की है, जब कमलनाथ हवाला कांड में घिर गए थे. उस समय एमपी में भाजपा की सरकार थी. ऐसे में कमलनाथ ने खुद लोकसभा चुनाव लड़ने के बजाय अपनी पत्नी अलका नाथ को उम्मीदवार बनाया और जनता ने उन्हें जितवा भी दिया. इसके बाद 1997 में कमलनाथ हवाला कांड के आरोप से बरी हो गए.

इससे अतिआत्मविश्वास में आए कमलनाथ पत्नी से इस्तीफा दिलाने की भूल कर बैठे. इस वजह से हुए उपचुनाव में कमलनाथ के सामने भाजपा ने प्रदेश के वरिष्ठ नेता सुंदर लाल पटवा को उतार दिया. पटवा ने उपचुनाव को गैर जरूरी बताते हुए इसके पीछे कमलनाथ के अहंकार को वजह बता कर इसे चुनावी मुद्दा बना दिया. इसका असर जनता पर हुआ और पटवा ने कमलनाथ को पटखनी दे दी.

हालांकि, 1998 में हुए आम चुनाव में कमलनाथ ने जनता के बीच अपनी गलती स्वीकार कर उपचुनाव के लिए माफी मांगी और जनता ने उन्हें माफ करके, फिर से सांसद बना दिया. छिंदवाड़ा में तब से कायम हुआ नाथ परिवार का दबदबा इस कदर बरकरार है कि पिछले साल 2023 में हुए एमपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लचर प्रदर्शन के बावजूद छिंदवाड़ा की सभी 7 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस जीतने में कामयाब रही.

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भाजपा ने बनाया नाक का सवाल

Political Pandit मानते हैं कि 2014 के बाद से भाजपा के लिए स्वर्ण काल चल रहा है. कम से कम समूचे उत्तर भारत में भाजपा की जब तूती बोल रही है, ऐसे में एमपी की छिंदवाड़ा लोकसभा सीट को जीतना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है. इसकी एकमात्र वजह कमलनाथ हैं, जिनकी जनहितैषी राजनीति के आगे भाजपा के कमल को छिंदवाड़ा में खिलने का मौका नहीं मिल पा रहा है.

भाजपा ने 2019 में मोदी लहर पर सवार होकर एमपी की सभी 29 सीटें जीतने की हुंकार भरी थी. इस लहर में गुना से कांग्रेस के तत्कालीन उम्मीदवार ज्योतिरादित्य सिंध‍िया सहित तमाम सूरमा चुनाव हार गए. मगर, भाजपा के अश्वमेघ का घोड़ा रोकने में छिंदवाड़ा और कमलनाथ ही एकमात्र बाधक बने थे. पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने छिंदवाड़ा में पूरी ताकत झोंक दी थी, मगर जनता ने इस इलाके की सभी 7 सीटें कांग्रेस की झोली में डाल कर भाजपा को साफ संकेत दे दिया था कि उसका कमल इस इलाके को रास नहीं आ रहा है.

अब एक बार फिर 2024 के आम चुनाव में भाजपा ने छिंदवाड़ा को नाक का सवाल बना लिया है. एमपी में कांग्रेस का एकमात्र बचा किला फतह करने के लिए भाजपा ने Election Management के माहिर खिलाड़ी कैलाश विजयवर्गीय को इस सीट का चुनाव प्रभारी बना कर विवेक बंटी साहू को मौजूदा सांसद नकुल नाथ के सामने एक बार फिर उतारा है. साथ ही छिंदवाड़ा में सरकारी योजनाओं की बारिश करके जनता को रिझाने का जिम्मा खुद सीएम मोहन यादव उठा रहे हैं.

इस बीच कमलनाथ के तमाम करीबी नेताओं को भी भाजपा में शामिल कराने की मुहिम चल रही है. इनमें छिंदवाड़ा की अमरवाड़ा सीट से कांग्रेस विधायक कमलेश शाह और मेयर विक्रम अहाके का भाजपा में जाना कमलनाथ के लिए झटका माना जा रहा है. हालांकि राजनीति के मंझे खिलाड़ी कमलनाथ ने Sympathy Card चल कर इसे भाजपा की 'राजनीतिक दादागिरी' और 'खरीद फरोख्त' की राजनीति करार दिया है. अब देखना होगा कि पहले चरण के चुनाव में छिंदवाड़ा सीट पर 19 अप्रैल को होने जा रहे मतदान में जनता 7 दशक के अतीत को याद रखकर वोट देती है या फिर भविष्य की नई इबारत लिखने में यकीन करती है.