बिहार के भोजपुर जिले के युवा अब खेती-बारी को छोड़कर अब रोजगार लिए पलायन कर रहे हैं. पलायन करने वाले किसानों का कहना है कि अब खेती बारी उनके लिए फायदे का काम नहीं रहा है. क्योंकि अब किसान का मतलब सिर्फ बुवाई और कटाई करना नहीं है बल्कि सारा काम अकेले की करना होता है. अब कृषि मजदूर नहीं मिलते हैं इसलिए सारा काम खुद करना पड़ता है. इसलिए पढ़े लिखें युवा किसानी छोड़कर लगातार शहर की ओर पलायन कर रहे हैं और शहरी मजदूर बन रहे हैं. अब यह एक बेहद गंभीर समस्या के तौर पर सामने आ रही है.
गौरतलब है कि बिहार का भोजपुर जिला धान और गेहूं की बंपर पैदावार के लिए जाना जाता है. पर अब वहां के किसानों को यह लग रहा है कि अब चीजें बदल गई हैं. किसान पूरी तरह से बाजार पर निर्भर हो गए हैं. ओडिशाबाइट्स वेबसाइट के अनुसार मदन नाम के एक किसान ने बताया कि जो पिछले 14 वर्षों से अपनी 20 बीघे से अधिक जमीन पर खेती कर रहे हैं. पर अब चीजें बदल गई हैं. अब गांवों में बैलों की जगह ट्रैक्टरों से जुताई की जा रही है. इसलिए अब गोबर की खाद नहीं मिल रही है.खाद के लिए वो पूरी तरह से बाजार के रासायनिक उर्वरकों पर निर्भर हैं.
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मदन ने धान की खेती की खर्च की जानकारी देते हुए कहा कि एक एकड़ जमीन में दो बार ट्रैक्टर चलाने के लिए 1800 रुपए खर्च होते हैं. जबकि 700 से 800 रुपए का खर्च धान खरीदने में होता है. साथ ही अगर पंप सेट के माध्यम से खेत में पानी पहुंचाने के लिए प्रति एकड़ लगभग 2,000 रुपये के डीजल की आवश्यकता होती है. बुवाई से पहले खेत में दो बार जुताई करना होता है, इसमें लगभग 2000 रुपए का खर्च आता है. बुआई से पहले खेत की कम से कम दो बार जुताई करनी चाहिए, इसमें लगभग 2,000 रुपये का खर्च आता है. इसके अलावा खेती के अन्य कार्यों में शारीरिक मेहनत के अलावा 17-18 हजार रुपए का खर्च होता है. जबकि एक एकड़ में 15-16 क्विंटल धान का उत्पादन होत है, इस तरह से बचत बिल्कुल नहीं होती है और खेती घाटे का सौदा हो जाता है.
वहीं अन्य किसान संतोष राय ने बताया कि किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए इंतजार करना पड़ता है. साथ ही पैसा मिलने में भी तीन से चार महीने का समय लग जाता है. इसलिए कई किसान ऐसे हैं जो मजबूरी में सस्ते दामों में बिचौलियों को एमएसपी से भी कम दाम में धान बेच देते हैं. उन्होंने कहा कि पिछले साल धान का एमएसपी 1950 रुपए था जबकि निजी मंडियों में खरीदार केवल 1600 से 1700 रुपए प्रति क्विंटल की दर से खरीद रहे थे. संतोष राय ने कहा कि गेहूं की कहानी भी कुछ इसी तरह की है. जिस तरह से गेहूं की खेती में खर्च होता है उस तरह से इसकी खेती में मुनाफा नहीं होता है. हां घर में खाने के लिए रोटी का इंतजाम जरूर हो जाता है.
टुकड़ों में टूट गया
विभिन्न आंकलन बताते हैं कि बिहार में बढ़ती आबादी और परिवारों के बीच भूमि के बंटारे ने काफी हद तक कृषि को प्रभावित किया है. क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी हो रहे बंटवारे के कारण जोत जमीन छोटी होती जा रही है. पंजाब में एक किसान की औसत भूमि का आकार 3.62 हेक्टेयर जबकि बिहार में यह केवल 0.39 हेक्टेयर है. बिहार में किसानों की संख्या 104.33 लाख है, जिनके पास जमीन हैं. इनमें 86.46 लाख लगभग 82.9 फीसदी सीमांत किसान हैं, जिनके पास 0.40 हेक्टेयर से कम जोत भूमि है. 10.06 लाख लगभग 9.6 फीसदी छोटे किसान हैं जिनके पास दो या दो हेक्टेयर से अधिक जमीन है. यही कारण है कि सीमांत किसान खेती छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं.
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भोजपुर जिला कृषि पदाधिकारी शत्रुघ्न साहू ने कहा कि कृषि की लागत बढ़ रही है, जिसका मुख्य कारण वैज्ञानिक तरीकों को नहीं अपनाना है. “भूखंड बहुत छोटे हैं. अगर किसान आधुनिक तकनीक अपनाते हैं, तो भी वे जल्द ही पुरानी पद्धति पर लौट आते हैं.उदाहरण देते हुए साहू ने कहा कि सबसे ज्यादा खर्च जुताई पर होता था. यदि खेतों की जुताई कम की जाए तो फसल अच्छी होगी और लागत भी कम लगेगी. पानी और बीज पर भी कम खर्च होगा.लेकिन किसान ये मानने को तैयार नहीं हैं. उनका मानना है कि अधिक जुताई से अच्छी फसल होगी, जिससे वास्तव में खेतों में पानी जमा हो जाता है. अधिक पानी के कारण गेहूं के पौधे पीले पड़ जाते हैं और विकास प्रभावित होता है.
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