Dairy Business: क्या आपने देखी है चलती-फिरती डेयरी, सड़क पर ही पलती हैं इनकी गाय, जानें डिटेल 

Dairy Business: क्या आपने देखी है चलती-फिरती डेयरी, सड़क पर ही पलती हैं इनकी गाय, जानें डिटेल 

बड़े पैमाने पर दूध का काम करने वालों को पता होता है कि आज गायों को लेकर पशुपालकों ने कहां डेरा डाला है. इसलिए सुबह और शाम को दूध के वक्त ये लोग अपनी गाड़ी लेकर वहीं पहुंच जाते हैं. खेतों में ही गाय का दूध निकाला जाता है. पशुपालक मोबाइल से डेयरी वालों को अपनी लोकेशन देते रहते हैं. 

Advertisement
Dairy Business: क्या आपने देखी है चलती-फिरती डेयरी, सड़क पर ही पलती हैं इनकी गाय, जानें डिटेल अपने अगले पड़ाव की ओर बढ़तीं कांकरेज गाय. फोटो क्रेडिट-किसान तक

सड़क पर 150 से 200 गायों का झुंड. सिर पर लाल पगड़ी और हाथ में डंडा लिए पशुपालक. सड़क पर कभी ना कभी ये सीन आपने जरूर देखा होगा. शहर के बाहर से गुजरने वाले बाईपास या हाइवे पर ये नजारा आपको जरूर दिख जाएगा. ये दूध की चलती-फिरती डेयरी भी कही जाती हैं. ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये लोग अपनी गायों के साथ साल के 12 महीने में से आठ महीने अपने घर, गांव, शहर और राज्य  से बाहर ही रहते हैं. समाज में कोई शादी-ब्याह होने या फिर और किसी काम के चलते बीच-बीच में घर का चक्कर लग जाए तो अलग बात है.

वर्ना तो गर्मी और बरसात इनकी सड़क और उसके किनारे खेतों में ही गुजरती है. इस तरह से अपनी गुजर-बसर करने वाले ये कोई 10-20 हजार लोग नहीं हैं, लाखों की जनसंख्या वाला इनका अपना एक पूरा देवासी समाज है. इनका कारोबार पशुपालन है. ये समुदाय मुख्य तौर पर राजस्थान का रहने वाला है. 

दो लोग संभालते हैं गायों के एक रेवड़ को 

150 से 200 गायों के एक झुंड को रेवड़ कहा जाता है. ऐसे ही एक रेवड़ को हांकने वाले पशुपालक हरीश ने किसान तक को बताया कि दो लोग मिलकर एक रेवड़ को संभालते हैं. किसी भी एक शहर में 10 से 12 रेवड़ होते हैं. हर एक शहर में ऐसे ही रहते हैं. सभी एक जगह जमा नहीं होते हैं. वर्ना तो पशुओं को चारे की कमी हो जाएगी. सड़क पर चलते वक्त गायों को सभालना मुश्किल काम होता है.

कांकरेज गाय के पशुपालक हरीश और बाघाराम. फोटो क्रेडिट-किसान तक
कांकरेज गाय के पशुपालक हरीश और बाघाराम. फोटो क्रेडिट-किसान तक

क्‍योंकि सड़क पर चलने वाले वाहनों को कोई परेशानी न हो इसका ख्याल रखना पड़ता है. हालांकि कई बार हमे गालियों का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन मजबूरी है क्या करें. एक गांव में हम दो से तीन दिन तक रुकते हैं. हालांकि ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि वहां हरा चारा कितना है. इसी हिसाब से हम धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ते रहते हैं. 

इसे भी पढ़ें: World Goat Day: ‘दूध नहीं दवाई है’ तो क्या इसलिए बढ़ रहा है बकरी के दूध का उत्पादन

फरवरी-मार्च में गायों के साथ छोड़ देते हैं अपना गांव 

पाली, राजस्थान के रहने वाले एक अन्य पशुपालक बाघाराम ने किसान तक से बातचीत में बताया कि फरवरी-मार्च में हम अपने घर से निकल आते हैं. क्योंकि यहीं से हमारे गांवों में हरे चारे और पानी की कमी शुरू हो जाती है. गायों का चारा और पानी लगातार मिलते रहे इसलिए हरियाणा में दाखिल हो जाते हैं.

खेतों में चारा खाती कांकरेज गाय. फोटो क्रेडिट-किसान तक
खेतों में चारा खाती कांकरेज गाय. फोटो क्रेडिट-किसान तक

क्योंकि इन्हीं पशुओं से हमारा भी पेट भरता है तो इसलिए ऐसा करना और भी जरूरी हो जाता है. महेन्द्रगढ़ बार्डर के रास्ते हरियाणा में दाखिल हो जाते हैं. फिर रेवाड़ी और मानेसर, गुड़गांव, होते हुए करनाल की तरफ निकल जाते हैं. तब तक सितम्बर आ जाता है. ये वो महीना होता है जब हमारे समाज के पशुपालक गांवों की ओर लौटना शुरू कर देते हैं.

इसे भी पढ़ें: खतरे में है सी फूड एक्‍सपोर्ट का किंग झींगा, महज तीन साल में ही घट गया 20 फीसदी दाम

रफ एंड टफ होती कांकरेज नस्ल की गाय

राजस्थान का ये पशुपालक कांकरेज गाय पालते हैं. हालांकि ये नस्ल मूल रूप से गुजरात की है, लेकिन राजस्‍थान में भी बड़े पैमाने पर इसका पालन होता है. इसकी दो सबसे बड़ी पहचान ये हैं कि एक तो इसके सींग बड़े और मोटे होते हैं. दूसरा ये कि इस नस्ल  की गाय का शरीर आम देसी गाय के मुकाबले बहुत बड़ा और भारी-भरकम होता है. ऐसा मान लें कि देसी गाय में जो सांड होते हैं, ऐसे ही शरीर की कांकरेज गाय होती है. ये दिनभर में अधिकतम पांच लीटर तक दूध देती है. ये रफ एंड टफ नस्ल की गाय है तो हर मौसम को बड़ी ही आसानी से झेल जाती है. जल्द  ही बीमार भी नहीं पड़ती है. 
 

 

POST A COMMENT