भारतीय मौसम विभाग के अनुसार, 1 जून से 29 जुलाई तक बंगाल में 41 फीसदी, बिहार में 35 फीसदी, झारखंड में 42 फीसदी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 20 फीसदी कम बारिश हुई है. इसी तरह, पंजाब में 44 फीसदी और हरियाणा में 40 फीसदी कम बारिश दर्ज की गई है. पहाड़ी राज्यों जैसे जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में भी 34 फीसदी कम बारिश हुई है. विशेष रूप से जुलाई महीने के दूसरे और तीसरे सप्ताह में बारिश की कमी देखी गई, जो धान की रोपाई का प्रमुख समय है. इसके कारण, धान की नर्सरी तो तैयार है, लेकिन रोपाई के लिए पानी की कमी ने किसानों को परेशानी में डाल दिया है. पहले से रोपी गई धान की फसलों में नमी की कमी के कारण पौधे मुरझा रहे हैं.
मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि देश में कुल मिलाकर बारिश सामान्य स्तर पर है, लेकिन उसका अनियमित वितरण और विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न मात्रा में बारिश की वजह से समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं. यह स्थिति जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के रूप में देखी जा रही है. इस स्थिति में, कृषि वैज्ञानिक किसानों को सलाह दे रहे हैं कि जिन राज्यों में बारिश कम हो रही है, वे दलहन फसलों जैसे उर्द, मूग और मोटे अनाज जैसे मक्का, बाजरा और ज्वार की खेती पर ध्यान दें. सुखा की स्थिति में तिलहन फसल तिल की भी खेती कम समय में बेहतर विकल्प हो सकती है. इसके अलावा राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, समस्तीपुर, पूसा के डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एवं नेमेटोलॉजी के हेड प्रोफेसर डॉ. एस के सिंह ने किसानों को कुछ उपायों को अपनाने की सलाह दी है.
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खेतों में नमी बनाए रखने के लिए मिट्टी की जल-धारण क्षमता में सुधार के लिए मल्चिंग, कार्बनिक पदार्थों का समावेश और कम जुताई जैसी विधियों का उपयोग करें. ये विधियां मिट्टी में नमी बनाए रखने और पानी की होल्डिंग कैपेसिटी को बढ़ाने में सहायक होती हैं. पानी की बर्बादी को कम करने के लिए ड्रिप या सूक्ष्म सिंचाई जैसी कुशल सिंचाई प्रणाली का प्रयोग करें. नियमित रूप से मिट्टी की नमी की निगरानी करें ताकि फसलों को जरूरी मात्रा में पानी मिल सके. मिट्टी की नमी के लिए सेंसर और मौसम-आधारित सिंचाई नियंत्रक स्थापित करें ताकि पानी के उपयोग को अनुकूलित किया जा सके और अधिक या कम सिंचाई को रोका जा सके. सब्जियों की नर्सरी में नेट की व्यवस्था करें जिससे सीधे सूर्य के प्रकाश को कम किया जा सके और वाष्पोत्सर्जन के माध्यम से पानी की हानि को रोका जा सके. मिट्टी के स्वास्थ्य को बढ़ाने और वाष्पीकरण को कम करने के लिए कवर फसलें लगाएं. यह अतिरिक्त कार्बनिक पदार्थ प्रदान करता है और मिट्टी की नमी को बनाए रखता है.
बरसात के समय में वर्षा जल को एकत्रित और संग्रहित करें. यह सिंचाई की पूर्ति और बाहरी जल स्रोतों पर निर्भरता कम करने का प्रभावी तरीका हो सकता है. खेतों की मेड़ों को ऊचा बनाएं और गांव के तालाबों में पानी एकत्रित करने के लिए उनके बंधों को ऊंचा करें ताकि तालाबों से पानी बाहर ना निकल सके. अगले साल गर्मी के महीने में पुराने तालाबों को गहरा करें और खेतों की गहरी जुताई करें ताकि सूखे के दौरान गहरी जड़ें निचली मिट्टी की परतों में जमा पानी तक पहुंच सकें. जल-उपयोग दक्षता में सुधार करने और सीमित जल उपलब्धता के तहत पौधों के विकास को अनुकूलित करने के लिए विकास नियामकों का उपयोग करें. पौधों पर पानी का दबाव कम करने के लिए निराई गुड़ाई का काम शाम में करें जिससे खेत की नमी ज्यादा ना उड़े. पानी की मांग को संतुलित करने और पूरी फसल बर्बाद होने के जोखिम को कम करने के लिए फसल चक्रण और विविधीकरण का प्रयोग करें.
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फलों के पेड़ों की कटाई छंटाई कर कैनोपी के आकार और घनत्व को नियंत्रित करें. यह पानी की मांग को कम कर सकता है और वायु परिसंचरण को बढ़ा सकता है, जिससे बीमारियों का खतरा कम हो सकता है. सूखे के तनाव से बचने के लिए प्रति पौधों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए संतुलित और उचित उर्वरकों का प्रयोग करें. पोटैशियम उर्वरकों के उपयोग से पेड़ के अंदर सूखा और बीमारियों से लड़ने की क्षमता में वृद्धि होती है. फलों की फसलों की नियमित निगरानी करें. सूखे से ग्रस्त पौधे अधिक संवेदनशील होते हैं और कीटों और बीमारियों को नियंत्रित करने से अतिरिक्त तनाव कम होता है. खेतों में हाइड्रोजेल का प्रयोग करें जिससे वर्षा के दौरान पानी सोखकर खेतों में नमी बनाए रखने में मदद मिलेगी. इन रणनीतियों को अपनाकर, फल उत्पादक किसान सूखे की स्थिति से बेहतर ढंग से निपट सकते हैं और अपनी फसलों की उत्पादकता और आर्थिक व्यवहार्यता की रक्षा कर सकते हैं. सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए विभिन्न नजरियो को संयोजित करना और उन्हें पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुरूप बनाना जरूरी है.
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