Haryana Assembly Election का परिणाम आ गया है, जिसमें एक बार फिर एक्जिट पोल गलत साबित हुए हैं और हरियाणा में तीसरी बार कमल खिला है. यानी हरियाणा में तीसरी बार बीजेपी को जनता का साथ मिला है, लेकिन बीजेपी को लगातार तीसरी बार मिले जनसमर्थन ने देश की किसान राजनीति में नया विमर्श शुरू कर दिया है. जिसमें सवाल ये है कि क्या हरियाणा विधानसभा चुनाव परिणामों को किसान आंदोलन का भी परिणाम समझना चाहिए. सवाल ये भी है कि जब किसान आंदोलन के बीच बीजेपी को सफलता पूर्वक हरियाणा विधानसभा चुनाव में जनता का समर्थन मिला तो इसके बाद किसान आंदोलन का अगला मुकाम क्या होगा. आज की बात इसी पर....
इस कहानी को समझने से पहले किसान आंदोलन, हरियाणा चुनाव और बीजेपी को समझते हैं. असल में MSP गारंटी कानून समेत किसानों से जुड़ी विभिन्न मांगों को लेकर 13 फरवरी से पंजाब बॉर्डर से किसान आंदोलन शुरू हुआ था. आंदोलनकारी किसानों का लक्ष्य दिल्ली में प्रदर्शन कर अपनी मांगों को मनवाने का था, लेकिन तत्कालीन हरियाणा की मनाेहर लाल खट्टर सरकार किसानों के लिए रास्ते का 'कांटा' बन गई.
मसलन, हरियाणा सरकार ने बॉर्डर पर स्थिति सड़कों पर कंटीली तारों से लेकर बैरिकेड लगा दिए तो वहीं बड़ी संंख्या में पुलिस और अर्धसैनिक बलों की तैनाती भी किसानों काे आगे बढ़ने से रोकने के लिए की गई. ऐसे में पुलिस और किसानों के बीच हिंसक टकराव भी हुआ. जिसमें एक युवा किसान शुभकरण सिंह की मौत भी हुई तो कुछ किसान और पुलिस वाले भी घायल हुए. कुल जमा हरियाणा सरकार ने किसानों को पंजाब और हरियाणा बॉर्डर पर ही रोक कर रखा.
हालांकि ऐसा माना जाता है कि लोकसभा चुनाव से पहले किसानों और ग्रामीणों के गुस्से को देखते हुए बीजेपी आलाकमान ने हरियाणा में नेतृत्व परिवर्तन किया. जिसके तहत मनोहर लाल खट्टर को पद से हटाकर नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया गया. नायब सिंह सैनी ने हरियाणा विधानसभा चुनाव की तारीख घोषित होने से पहले तक किसानों को रिझाने के लिए बहुत सी घोषणाएं की. तो वहीं किसानों को रोकने के लिए बीजेपी के नेताओं ने माफी भी मांगी, लेकिन किसान संंगठन बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोले रहे.
आंदोलनकारी किसान संगठन SKM गैरराजनीतिक ने गांव-गांव बीजेपी के खिलाफ कार्यक्रम किए तो वहीं दूसरे किसान संगठन भी बीजेपी के खिलाफ इस पूरे चुनाव में सक्रिय रहे. कुल जमा हरियाणा चुनाव में किसान बड़ा फैक्टर थे और ये फैक्टर पूरी तरह से बीजेपी के खिलाफ सक्रिय रहा. जिसका फायदा कांग्रेस की तरफ से भी उठाया गया.
हरियाणा विधानसभा चुनाव में किसान राजनीति प्रभावी तौर पर पीक पर रही, जिसमें किसान संंगठनों, किसान नेताओं और विपक्षी दलों की तरफ से बीजेपी को उसकी किसाननीतियों को लेकर कटघरे में रखा गया. इसके पीछे की मुख्य वजह लोकसभा चुनाव का परिणाम था. असल में हरियाणा में लोकसभा की 10 सीटें हैं. इन 10 सीटों पर 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जीत मिली थी, लेकिन जून में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी को 5 सीटों से ही संतोष करना पड़ा, जबकि 5 सीटें कांग्रेस के खाते में गई, जबकि कांंग्रेस रेस में प्रभावी नहीं थी. ऐसे में किसान आंदोलन और किसान राजनीति को इसका श्रेय दिया जाता है. लोकसभा चुनाव के प्रभावी बैकग्राउंड के चलते विधानसभा चुनाव में जमकर किसान राजनीति हुई.
किसान आंदोलन और लोकसभा चुनाव के नतीजे ही हरियाणा की प्रभावी किसान राजनीति का कारण नहीं है. इसके पीछे का मुख्य कारण हरियाणा की सियासत का समीकरण भी हैं. असल में हरियाणा का कल्चर ही एग्रीकल्चर है. हरियाणा के जातिगत समीकरण को समझें तो 50 फीसदी से अधिक आबादी सीधे तौर पर किसानी से जुड़ी हुई है, जिसमें 35 फीसदी सभी वर्गों के जाट, 8 फीसदी सैनी, 8 फीसदी यादव शामिल हैं. इसके साथ ही 90 सीटों वाली हरियाणा विधानसभा की 62 सीटें गांवों में पड़ती हैं. इसलिए तो हरियाणा के कल्चर को ही एग्रीकल्चर माना जाता है.
हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी को स्पष्ट जनमत मिला है. कुल मिलाकर बीजेपी तीसरी बार सरकार बनाने जा रही है. हरियाणा में बीजेपी को ये जनमत तब मिला है, जब चुनाव में राज्य में किसान राजनीति अपने पीक पर थी और कांग्रेस ने भी उसका जमकर दोहन किया. अब ऐसे में सवाल उठता है कि अगर हरियाणा में किसान राजनीति प्रभावी थी और किसान आंदोलन के जख्म हरे थे और बीजेपी के खिलाफ माहौल था तो आखिर किस वजह से बीजेपी को बहुमत मिला है. इस पूरी कहानी को चढूनी, दुष्यंत चौटाला की हार और बीजेपी के माइक्रोमैनेजमेंट के सहारे समझना होगा.
तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हुए किसान आंदोलन के पोस्टर बॉय और इस किसान आंदोलन के रूठे फूफा माने जाने वाले किसान नेता गुरुनाम सिंह चढूनी ने हरियाणा विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के बैनर तले भाग्य अजमाया था. संयुक्त संघर्ष पार्टी के बैनर तले पिहोवा से चुनाव लड़े गुरनाम सिंह चढूनी को सिर्फ 1170 वोट मिले हैं, जबकि उनकी सीट पर जीतने वाले कांग्रेस उम्मीदवार को 64 हजार से अधिक वोट मिले हैं.
वहीं हरियाणा के उपमुख्यमंत्री रहे जेजेपी के अध्यक्ष दुष्यंत सिंह चौटाला का सूफड़ा साफ हो गया है. उनकी पाटी का एक भी उम्मीदवार जीतने में सफल नहीं रहा है, जबकि उचान कलां सीट से भाग्य अजमा रहे दुष्यंत सिंंह चौटाला पांचवें स्थान पर रहे हैं, उन्हें 7950 वोट मिले हैं, जबकि इस सीट पर विजय बीजेपी उम्मीदवार को 48 हजार से अधिक वोट मिले हैं.
किसान राजनीति के नजरिए से चढूनी और दुष्यंत सिंह चौटाला की हार को देखें तो इसमें विरोधाभास है. इसके पीछे की मुख्य वजह ये है कि चढूनी जहां किसानों के पोस्टर बॉय थे तो वहीं किसान आंदोलन के समय उपमुख्यमंत्री रहे दुष्यंत सिंह चौटाला की नीतियों और खामोशी की वजह से किसान उन्हें नापंसद करने लगे और उनकी पहली जीत को भूल बताते थे. ऐसे में दुष्यंत की हार किसानों का गुस्सा तो इजहार करती है, जबकि चढूनी की हार से समझा जा सकता है कि उन्हें किसानों ने अपना नेता मानने से इनकार कर दिया है.
हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत को प्रथम दृष्टया देखेंगे तो इसे बीजेपी का माइक्रोमैनेजमेंट, छोटे किसानों से प्यार और कांग्रेस की अंंर्तकलह समझा जा सकता है. असल में बीजेपी अपने माइक्रोमैनेजमेंट के सहारे इस चुनाव को जाट बनाम ओबीसी बनाने में सफल रही. हुड्डा की मजबूत दावेदारी ने जहां कांग्रेस को जाट राजनीति का चेहरा बना दिया तो बीजेपी ने इसे अवसर में बदलते हुए नायब सिंह सैनी के चेहरे सहारे अपने कॉडर में सैनी, यादव, पंजाबी, वैश्य, ब्राह्मण और दलित वोटरों को जोड़ने में सफलता पाई. वहीं दूसरी तरफ 35 फीसदी जाट वोट भी कांग्रेस, आईएनएलडी, जजपा के बंट गया.
इन सब के बीच नायब सिंह की साफ्ट किसान राजनीति ने भी असर दिखाया. जिसमें 24 फसलों की MSP पर खरीद की घोषणा, प्रति किसान 2 हजार रुपये एकड़ बोनस, आबियाना माफी योजना, पीएम किसान सम्मान किस्त का फायदा बीजेपी को हुआ. इससे छोटे किसान यानी गैर जाट वोट बीजेपी की तरफ आकर्षित हुए.
बेशक, हरियाणा विधानसभा चुनाव में किसान राजनीति का करंट था, लेकिन उस करंट को बेअसर करने में बीजेपी को सफलता मिली है. ऐसे में किसान आंदोलन के भविष्य पर अब सवाल उठने लगे हैं. ये सच है कि अब हरियाणा में प्रभावी किसान आंदोलन ठंडा पड़ने लगेगा, लेकिन किसान आंदोलन का अगला मुकाम देशव्यापी हो सकता है, ये भी सच है. उसके लिए कांग्रेस की भूमिका अहम होगी. ये सच है कि देश के बड़े हिस्से के किसान MSP गारंटी कानून की मांग कर रहे हैं और देश में इसको लेकर किसान राजनीति गरमाई हुई है, लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे इसे प्रभावित जरूर करेंगे. ऐसे में कांग्रेस अगर प्रभावी तौर पर शीतकालीन सत्र में संसद में MSP गारंटी पर प्राइवेट बिल लाने का वादा पूरा करती है तो जाहिर तौर पर देश की किसान राजनीति में फिर जान आ सकती है.
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