Explainer: बेटी के ब्याह सा चुनावी माहौल, क्या हैं जनता की राय और मुद्दे, पढ़िए किसान तक के इलेक्शन कारवां में

Explainer: बेटी के ब्याह सा चुनावी माहौल, क्या हैं जनता की राय और मुद्दे, पढ़िए किसान तक के इलेक्शन कारवां में

इस सब में हम मीडिया वाले उस पड़ोसी की तरह होते हैं, जो ब्याह के दिन खाना खाने जाते हैं और बाकी सारे कार्यक्रम अपनी अटारी के किसी झरोखें से देखते हैं. राजनीति को हम मीडिया के लोग उसी पड़ोसी की नजरों से देखते रहते हैं. आपका किसान तक भी राजस्थान के इन विधानसभा चुनावों को अपनी नजर से देखने जमीन पर उतरा है. यह जानने कि कौन किससे नाराज है. क्यों और क्या उनके समाधान इस राजनीति के पास हैं? 

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Explainer: बेटी के ब्याह सा चुनावी माहौल, क्या हैं जनता की राय और मुद्दे, पढ़िए किसान तक के इलेक्शन कारवां मेंक्या हैं राजस्थान की जनता की राय और मुद्दे, पढ़िए किसान तक के इलेक्शन कारवां में. GFX- Sandeep Bhardwaj

राजस्थान विधानसभा चुनाव 2023. घर में बेटी के ब्याह सा है ये चुनाव. कांग्रेस-बीजेपी और तमाम पार्टियां हैं घराती-बराती जैसी और जनता है वो तमाम भाई-बंध और रिश्तेदार जो तमाम नाराजगियों और कहासुनी के बावजूद रूठने-मनाने के बाद इसमें शरीक होगी ही. वोट इस ‘ब्याह’ में शामिल होने की अनिवार्य शर्त है. जैसे शादी के एलबम में खाना खाते हुए का फोटो दिखाता है दूर का कोई रिश्तेदार, यह कहते हुए कि देखो मैं शादी में इतनी दूर से भी शामिल होने आया था. टिकट मिलने की खुशी, ना मिलने पर विद्रोह, मान-सम्मान ना मिलने पर पार्टी से नाराजगी...ठीक वैसे ही जैसे किसी घर की शादी में चाचा का ना आना तो फूफा जी का रूंस जाना. 

ये तो हुई जनता और नेताओं के बीच की बात, लेकिन इस सब में हम मीडिया वाले उस पड़ोसी की तरह होते हैं, जो ब्याह के दिन खाना खाने जाते हैं और बाकी सारे कार्यक्रम अपनी अटारी के किसी झरोखें से देखते हैं. राजनीति को हम मीडिया के लोग उसी पड़ोसी की नजरों से देखते रहते हैं. आपका किसान तक भी राजस्थान के इन विधानसभा चुनावों को अपनी नजर से देखने जमीन पर उतरा है. यह जानने कि कौन किससे नाराज है. क्यों और क्या उनके समाधान इस राजनीति के पास हैं? 

हाल ही में हमने पूर्वी राजस्थान के अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, गंगापुर, सवाईमाधोपुर जिलों के दौरे किए. यह समझने की कोशिश की कि आखिर किसानों के नजरिए से ये चुनाव कैसे होने जा रहे हैं. अगर नाराजगी है तो वो किन मुद्दों पर है और क्यों कोई अपने नेता से खुश है? भाजपा ने अब तक कुल 124 उम्मीदवारों को मैदान में उतार दिया है तो कांग्रेस ने अब तक कुल 76 टिकट बांट दिए हैं. 

ईआरसीपी को लेकर बीजेपी से नाराज किसान

पूर्वी राजस्थान में चुनावी माहौल अपने चरम पर धीरे-धीरे आ रहा है. जनता में काना-फूंसी है. वहीं, कुछ खुसफुसाहट है उन मुद्दों की जिन पर बीते पांच साल में कोई भी पार्टी ने ध्यान नहीं दिया. सबसे ज्यादा नाराजगी पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना को लेकर है. किसानों का कहना है कि बीजेपी ने इस मुद्दे पर सिर्फ राजनीति की है. अगर वे इसे राष्ट्रीय परियोजना घोषित कर देते तो पूर्वी राजस्थान की तस्वीर और तकदीर दोनों बदल जाती. वैसे ही जैसे पश्चिमी राजस्थान की इंदिरा गांधी नहर आने के बाद बदल गई. किसान संगठनों में इस बात की नाराजगी है कि केन्द्र में राजस्थान का जलशक्ति मंत्री होते हुए भी यह काम नहीं हो पाया. 

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दोनों दलों के लिए यह योजना चुनावी रूप से काफी महत्वपूर्ण भी हो जाती है. हालांकि पिछली बार गुर्जर, जाट वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा पूरी तरह कांग्रेस को मिला,लेकिन इस बार यह फॉर्मूला शायद ही वापस बने. क्योंकि गुर्जरों के एक बड़े धड़े में सचिन पायलट का प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर ना पहुंचना खटक रहा है. इसी उम्मीद ने पिछली बार कांग्रेस को कई सीटों पर जिता दिया था. 

ये है पूर्वी राजस्थान में विधानसभा सीटों का गणित

पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (ERCP) 20 (पहले 13) जिलों में सिंचाई और पेयजल की योजना है. ये जिले भरतपुर, डीग, अलवर, धौलपुर, करौली, सवाई माधोपुर, दौसा, जयपुर, टोंक, बारां, बूंदी, कोटा, अजमेर और झालावाड़ हैं. इन जिलों में राजस्थान की कुल 200 में से आधी से कुछ कम यानी 83 विधानसभा सीटें आती हैं जिनकी करीब तीन करोड़ आबादी है. ये राजस्थान की कुल आबादी का 41.13 प्रतिशत है. ये जिले प्रदेश के हाड़ौती, मेवात, ढूंढाड़, मेरवाड़ा और ब्रज क्षेत्र में आते हैं.  2018 के विधानसभा चुनावों में 13 जिलों की 83 विधानसभा सीटों में से 61 फीसदी यानी 51 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं. साथ ही कुछ और सीट पर उसके समर्थित निर्दलीय, बहुजन समाज पार्टी (BSP) और अन्य पार्टियों का कब्जा है. 

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वहीं, इन 13 जिलों में से सात जिलों में कांग्रेस बहुत अच्छी स्थिति में है. अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, टोंक, सवाई माधोपुर, दौसा जिले में 39 विधानसभा सीट हैं. 2018 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने 25 सीट इन जिलों में जीती थी. बाकी पांच बीएसपी, चार निर्दलीय और एक आरएलडी के खाते में गई. जो धौलपुर सीट भाजपा से शोभारानी कुशवाह ने जीती थी, वे भी बीते दिनों कांग्रेस में शामिल हो गईं. 

वहीं, 16 अक्टूबर से कांग्रेस ने पूर्वी राजस्थान में ईआरसीपी को लेकर यात्रा भी शुरू की है. बारां में पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और दौसा के सिकराय में प्रियंका गांधी सभा कर चुकी हैं. लेकिन भाजपा की तरफ से ना तो ईआरसीपी के पक्ष में और ना ही कांग्रेस की इन सभाओं के जवाब में अब तक कुछ कहा गया है. 

पॉम ऑयल पर कम आयात शुल्क से परेशान सरसों मिल मालिक

पूर्वी राजस्थान देश में सबसे ज्यादा सरसों उगाने वाला क्षेत्र है. यहां की जलवायु और मिट्टी सरसों की खेती के लिए काफी अनुकूल है. इस वजह से सबसे अधिक सरसों का उत्पादन राजस्थान में होता है. कृषि सहयोग और किसान कल्याण विभाग (DACFW) आंकड़ों के अनुसार देश में कुल उत्पादित होने वाले सरसों में राजस्थान में अकेले  46.7 प्रतिशत का उत्पादन होता है.लेकिन सरसों के किसानों के साथ-साथ इस पर निर्भर भरतपुर के सरसों मिल मालिक खासे परेशान हैं. 

भरतपुर में सरसों से संबंधित करीब 100-120 मिल हैं. इनमें से 70 मिलें अच्छा भाव नहीं मिलने के कारण बीते महीनों में बंद हो गई थीं. भरतपुर स्थित मस्टर्ड ऑयल प्रोड्यूसर एसोसिएशन के सदस्य भूपेन्द्र गोयल किसान तक से इस संबंध में बात करते हैं. वे बताते हैं, “इस साल सरसों ने किसानों का नुकसान तो किया ही है. व्यापारियों की भी कमर तोड़ दी है. हमारे यहां सिर्फ 30 फीसदी मिलें ही चालू हालत में हैं. ये मिलें भी बहुत सीमित स्तर पर काम कर रही हैं.” 

राजस्थान में 25 नवंबर को वोटिंग होगी और तीन दिसबंर को परिणाम आएंगे.

इसकी वजह है भारत सरकार की पॉम ऑयल नीति. दरअसल, भारत सरकार ने पाम ऑयल को यहां खाद्य तेलों की श्रेणी में शामिल किया हुआ है. विदेशों से तेल आयात करने की नीति के चलते सरकार ने पाम ऑयल को इंपोर्ट ड्यूटी से मुक्त कर रखा है. 
गोयल कहते हैं, “पहले पाम ऑयल पर आयात शुल्क 45 प्रतिशत था. सरकार ने इसे घटाकर शून्य कर दिया. इससे पाम ऑयल ने बाजार में पैर पसार लिए. क्योंकि यह सरसों के तेल से भी सस्ता बिकता है.” 

नहरें और पेयजल का भारी संकट, जनता परेशान 

पूर्वी राजस्थान के करौली जिले में है पांचना बांध. इसके कमांड एरिया की 50 हजार बीघा जमीन साल 2006 से सूखी है क्योंकि पांचना से निकली नहरों में प्रशासन पानी नहीं छोड़ रहा. इसीलिए हर साल किसानों को 250 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है. चुनावों में यह मुद्दा बड़ा है, लेकिन जनता को दुख है कि कोई उनकी मांगों को नहीं सुन रहा है. हाइकोर्ट के पानी छोड़ने के आदेशों की भी पालना नहीं हो रही है. 

इसके अलावा गंगापुर सिटी के मांड एरिया में पेयजल का भारी संकट है. खेत तलाइयों के पास बने कुओं में सिर्फ एक महीने का पानी बचा है. फिर पानी का ऐसा संकट खड़ा होगा जिसकी कल्पना हम और आप शहरों में बैठकर नहीं कर सकते. 

और अंत में...

वोट जनता की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है. हर पांच साल में जनता इसे बखूबी निभाती भी है. जनता की समस्याओं का समाधान नेताओं का संवैधानिक दायित्व है, लेकिन राजनेता उन समस्याओं का समाधान नहीं कर पाते हैं. हर बार वही मूलभूत समस्याएं सामने आती हैं. हर बार जनता को आश्वासन मिलते हैं.

इसीलिए मैंने इस एक्सप्लेनर की शुरूआत में लिखा था कि जनता तमाम नाराजगियों और कहासुनी के बावजूद रूठने-मनाने के बाद इसमें शरीक होगी ही. जरूरत उन नेताओं को है जिनके पास सत्ता के रूप में एक दायित्व है इन समस्याओं के अंत का. और अंत में हम पत्रकार इन समस्याओं को आपके सामने लिख-बोल और दिखा ही सकते हैं. किसान तक वो कोशिश बखूबी कर रहा है. 


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