देश की संसद में किसानों की उन्नति और कृषि के विकास को लेकर सत्ता और विपक्ष दोनों की ओर से अधिक मुखरता देखी जा रही है. यह बात की जा रही है कि क्या संसद के सदस्य वास्तव में किसानों के उत्थान के लिए गंभीर हैं या फिर आगामी हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए खेती-किसानी केवल एक चुनावी मुद्दा बनकर रह जाएगी. अन्य राज्यों के किसानों की तुलना में हरियाणा और महाराष्ट्र के किसान अपनी कृषि मांगों और अधिकारों के प्रति अधिक सजग रहते हैं. यह एक सकारात्मक संकेत है कि खेती-किसानी अब मुख्य चर्चा का विषय बन रही है. सत्ता और विपक्ष दोनों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर लोकसभा चुनाव के बाद संसद में लगातार चर्चा की है. विपक्ष सरकार की कमियां बता रहा है और सरकार अपनी स्थिति स्पष्ट कर रही है. लेकिन इसके साथ ही, कृषि और किसानों के विकास के लिए कृषि शोध और शिक्षा के बजट पर चर्चा भी जरूरी है. लेकिन संसद में इसकी चर्चा अपेक्षाकृत कम देखने को मिल रही है, जो कि भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए बेहद जरूरी है.
देश में बढ़ती जनसंख्या और घटती खेती की जोत, उत्पादन और उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाने की चुनौती, खेती में बढ़ती लागत और लाभ दायरा घटने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रभाव जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए कृषि रिसर्च जरूरी है. जलवायु परिवर्तन और कम होते प्राकृतिक संसाधन, भूमिगत जल, मिट्टी की उर्वरता में कमी और प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव से निपटने के लिए कृषि शोध की जरूरत है. जबकि, सरकार ने कृषि शोध और शिक्षा के बजट में पिछले साल की तुलना में मात्र 6 परसेंट की बढ़ोतरी की है. पिछले साल 2023-24 में 9876.60 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था, जो इस साल 2024-25 में 9941.09 करोड़ रुपये किया गया है. इसके बजट का ज्यादा हिस्सा 70 से 80 फीसदी सैलरी और अन्य कार्यों पर खर्च होता है जिससे रिसर्च कार्य के लिए बहुत कम बचते हैं. सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आंवटन किए गये कृषि रिसर्च के बजट से भविष्य की चुनौतियों के सभी रिसर्च संभव हो सकते है क्या ?, वही दूसरा कृषि रिसर्च और अन्य कृषि नवाचारों के लिए आवंटित बजट पूरी तरह से उपयोग हो और इसके प्रभाव का मूल्यांकन किया जाए. इस प्रकार, कृषि अनुसंधान में अधिक निवेश से देश की कृषि उत्पादकता और किसान की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है.
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सरकार का जोर प्राकृतिक खेती पर है, जिससे उम्मीद की जा रही है कि इससे कई समस्याओं का हल निकलेगा. अगले दो साल में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने की योजना है, लेकिन इसके लिए बजट में केवल 365 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. जो पिछले साल के 459 करोड़ रुपये से कम है. पिछले साल आंवटित बजट केवल 100 करोड़ रुपये ही खर्च हो सके थे. किए गए खर्च की कमी ने इस योजना की प्रभावशीलता पर सवाल उठाए हैं क्योकि प्राकृतिक खेती को सफल बनाने के लिए पर्याप्त शोध और तकनीकी सहायता की जरूरत है, जिससे किसानों को लाभ और गुणवत्ता में सुधार दिख सके. प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त बजट और रिसर्च की जरूरत है ताकि इसके लाभों को साबित किया जा सके और किसान इसे अपनाने के लिए प्रेरित हों.
हाल के रिसर्च पेपर में बताया गया है कि भारतीय कृषि अनुसंधान में निवेश की कमी हो रही है, जिससे कृषि क्षेत्र को समय पर बेहतर तकनीकी और वैज्ञानिक सहायता नहीं मिल रही है. 2011 से 2022 के बीच कृषि रिसर्च में निवेश धीमा रहा है. एक रुपये का निवेश करने पर करीब 13.85 रुपये का लाभ मिलता है. NACP के अनुसार, कृषि रिसर्च पर एक रुपये निवेश करने पर 13.85 रुपये का लाभ मिलता है. अन्य क्षेत्रों में निवेश पर भी लाभ मिलता है, जैसे कि कृषि प्रसार पर 7.40 रुपये, शिक्षा पर 2.05 रुपये, सड़क पर 1.33 रुपये, बिजली पर 0.84 रुपये और सिंचाई नहर पर 0.25 पैसे का रिटर्न मिलता है. पशु विज्ञान के रिसर्च पर एक रुपया निवेश करने पर 20.81 रुपये का रिटर्न मिलता है, जबकि फसल विज्ञान के लिए यह लाभ 11.69 रुपये है.
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भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए कृषि रिसर्च पर बहस और बजट दोनों की जरूरत है. कृषि और किसान के विकास के लिए अधिक निवेश और शोध की जरूरत है, जिससे उत्पादन, गुणवत्ता और किसानों के लाभ में वृद्धि हो सके. सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है ताकि कृषि क्षेत्र में सतत विकास और प्रगति सुनिश्चित की जा सके.
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