Khadin Special : समुदायों को जोड़ती थी खड़ीन खेती, अनाज उत्पादन में सबका ह‍िस्सा था तय

Khadin Special : समुदायों को जोड़ती थी खड़ीन खेती, अनाज उत्पादन में सबका ह‍िस्सा था तय

जैसलमेर की खड़ीन खेती की पारंपर‍िक व्यवस्था के पहले पहले पार्ट में हमने आपको खड़ीन खेती की व्यवस्था और दूसरे पार्ट में खड़ीन खेती से मजदूर से संपन्न किसान बने गाजीराम की कहानी बताई थी. अब खड़ीन खेती के तीसरे पार्ट में हम आपको खड़ीन सिस्टम का सामाजिक ढांचे में महत्व के बारे में बता रहे हैं. हालांकि पिछले कुछ दशकों में यह सामाजिक व्यवस्था लगभग खत्म हो गई है. लेकिन जैसलमेर जिले के रामगढ़ क्षेत्र में कहीं-कहीं यह अभी भी चलन में है. पढ़िए ये रिपोर्ट. 

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Khadin Special : समुदायों को जोड़ती थी खड़ीन खेती, अनाज उत्पादन में सबका ह‍िस्सा था तय  Khadin Special : खड़ीन खेती थी समुदायों को आपस में जोड़े रखने का माध्यम. GFX- संदीप भारद्वाज

कुछ दशक पहले तक हमारे ग्रामीण समाज में वस्तु विनिमय व्यवस्था लागू थी. जो कहीं-कहीं आज भी देखने को मिलती है. इसके साथ ही जजमानी व्यवस्था भी चलन में थी. पश्चिमी राजस्थान में जजमानी व्यवस्था अभी भी चल रही है. इसी तरह खड़ीन खेती में भी समाज के अलग-अलग समुदायों का हिस्सा होता है. क्योंकि उनका खड़ीन खेती में किसी ना किसी तरह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष योगदान होता था.

साथ ही सामाजिक व्यवस्था में किस तरह अलग-अलग समुदाय मिल-जुलकर रहते थे, खड़ीन कृषि व्यवस्था इसका उदाहरण भी पेश करते हैं. जैसलमेर जिले के रामगढ़ में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता चतरसिंह जाम कहते हैं कि रामगढ़ क्षेत्र में पुरानी सामाजिक वस्तु विनिमय और यजमानी व्यवस्था अभी भी चल रही है. इस व्यवस्था के फायदे और नुकसान दोनों ही हैं. हालांकि खड़ीन खेती में यह व्यवस्था समाज के लिए लाभदायक ही है. 

खड़ीनों में कुल उत्पादन का ढाई प्रतिशत अनाज सुथारों को दिया जाता था

जाम किसान तक से बताते हैं क‍ि पहले के समय में सुथार समाज (लकड़ी का काम करने वाला समुदाय) के लोग किसानों को हल बनाकर देते थे. साथ ही सुथार ही दही बिलोने के लिए रई बनाया करते थे. प्रति 50 परिवारों पर एक सुथार परिवार होता था. ये सुथार इन 50 किसान परिवारों को हल और लकड़ी संबंधी सामान देता था. इसीलिए ये 50 परिवार उस सुथार को खड़ीन में कुल उत्पादन का ढाई प्रतिशत अनाज देते थे.

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उदाहरण के लिए अगर खड़ीन में 100 क्विंटल पैदावार हुई तो सुथार को ढाई क्विंटल अनाज बतौर मेहनताना दिया जाता था. हालांकि अब खेती में लकड़ी के हलों का उपयोग खत्म हो गया है. इसीलिए यह व्यवस्था भी खत्म हो रही है. लेकिन कहीं-कहीं यजमानी के तौर पर अनाज अभी भी दिया जाता है.”

मेघवाल को पांच प्रतिशत तक अनाज मिलता था

जाम जोड़ते हैं क‍ि फसल पकने और कटने के बाद खलिहान में रखी जाती थी. फसल रखने से पहले खलिहान तैयार करने का काम मेघवाल समाज के लोग करते थे. इसे स्थानीय भाषा में नींप करना कहते हैं. पूरी फसल खलिहान में रखी जाती थी. फिर किसान बैलों से अन्न निकालने का काम करते थे.

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पूरा अनाज निकालने के बाद उसे इकठ्ठा करने के लिए लकड़ी की चौसिंगी (क्षेत्र के हिसाब से इसका नाम बदल जाता है) से बचा हुआ अनाज मेघवाल परिवार को दिया जाता था. यह चार-पांच प्रतिशत होता था. यानी 100 क्विंटल पैदावार पर मेघवाल को करीब पांच क्विंटल अनाज मिल जाता था. मेघवाल खलिहान के साथ-साथ जुताई में भी सहयोग करते थे. ”

खेती और पशुपालन के जरिये जुड़े थे समाज

खड़ीन में होने वाले कुल उत्पादन का एक प्रतिशत कुम्हार समुदाय को दिया जाता था. चतरसिंह जाम कहते हैं क‍ि खेती और पशुपालन का एक-दूसरे समाजों से संबंध होते हैं. जैसे कुम्हार का खेती में कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन पशुपालन में उसका योगदान होता था.

दही बिलोने के लिए कुम्हार ही मिट्टी की नाद (मटकेनुमा गहरा बर्तन जिसमें दही जमाया जाता है और छाछ बनाई जाती है) बनाते थे. इसीलिए उसे खड़ीन में होने वाले कुल उत्पादन का एक प्रतिशत अनाज और प्रमुख चारों त्योहार (होली, दिवाली, रक्षाबंधन और दशहरा) पर एक-एक किलो घी दिया जाता था.” 

गाने-बजाने वाले मांगणियार समुदाय का भी खड़ीन में हिस्सा

जिन समुदायों का खेती और पशुपालन से आपसी संबंध था उन सभी को खड़ीनों में होने वाली पैदावार में से हिस्सा दिया जाता था. लेकिन पश्चिमी राजस्थान में मनोरंजन करने वाले मांगणियार समुदायों को भी पैदावार का हिस्सा दिया जाता था. क्योंकि ये समुदाय पूरे गांव या कस्बे में शादी-ब्याह में गाने-बजाने और मनोरंजन का काम करता था. इसीलिए उसे मजदूरी के तौर पर अनाज दिया जाता था. 

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भील समाज खेती की रखवाली करता था

खड़ीनों की रखवाली का काम भील समुदाय के जिम्मे था. रात में जंगली जानवरों से खेती की रखवाली भील समाज के लोग ही किया करते थे. यह व्यवस्था आज भी लागू है. रखवाली के बदले में भील परिवार को उनके खेतों के लिए बीज और फसल का कुछ हिस्सा दिया जाता था. 

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